Author: Manoj Kr. Sharma
श्वेतपरी ओ श्वेतपरी ! हैं आँखें तेरी मदभरी क्यों स्वर्गपुरी से उतर अवनि पर आयी री, ओ श्वेतपरी ! …
काटकर लकड़ियाँ जो रोज बेचता है वो लकड़हारा भी ख्वाब देखता है बाँधकर लकड़ियाँ सपने सँजोया उसने हर वक्त, हर मौसम बदन पे झेलता है बिक जायेंगी …
एक विशाल अँधेरे बंद कमरे में लोग एक-एक कर के अपने-अपने हाथ में चिराग लेकर प्रवेश करते रहे… जो गये…लौटकर नहीं आये शहीद कहलाये । और जो बच गये …
उठो वत्स ! सारी रात जागकर तेरी माँ ने सम्पूर्ण कथा सुनी है तेरे तात से । ओ अभिमन्यु ! उठ…चक्रव्यूह तोड़ दे युग को नव-मोड़ दे दुश्मनों का …
अलविदा ! कहने से पहले मुझे यह कहना है जो देखा है, पाया है अहा ! कितना अनोखा है ज्योतिसागर में देखा शतदलकमल खिला हुआ कर के मधुपान जिसका …
जब नयी-नयी सृष्टि हुई आकाश में तारे विहँस उठे देवताओं ने गीत गाये और सभा में झूम उठे, “अहा ! इस परिपूर्णता में कितना विशुद्ध आनंद है !” तभी …
आज…तूने मृत्युदूत को मेरे द्वार पर भेजा है अज्ञात सागर-पार से जो मेरे लिये सन्देश लाया है रात अँधेरी है और मैं भयभीत हूँ फिर भी दीप हथेली पर …
चिरजन्म की वेदना चिरजीवन की साधना ज्वाला बनकर उठे निर्बल जानकर मुझे करो नहीं कृपा…ओ रे भष्म करो…वासना और विलम्ब न करो अमोघ बाण छोड़ दे वक्ष को जकड़े …
वे दिन के ढलते-ढलते मेरे घर में आये और बोले, ‘हम यहीं-कहीं तेरे पास चुपचाप पड़े रहेंगे देवता की अर्चना में तेरी सहायता करेंगे जो प्रसाद…पूजा के उपरान्त मिलेगा …
फिर…एक बार सबने मेरे मन को घेर लिया फिर…एक बार मेरी आँखों पर आवरण डाल दिया मैं फिर…एक बार इधर-उधर की बातों में उलझ गया चित्त में आग की …
अहा ! यही तो तेरा प्रेम है…ओ मेरे हृदयहरण ! पत्ते-पत्ते से तेरा दिव्य-आलोक झर रहा है स्वर्ण की तरह झर-झर… अलस-मधुर-मेघ, सुगंधित पवन स्फुरित कर रहे…मेरे तन-मन अहा …
जीवन जब नीरस होने लगे करुणा की धार बरसाओ जीवन-माधुर्य जब शेष होने लगे गीत सुधा-रस छलकाओ कर्म…जब दैत्यरूप लेकर आकाश में गरजने लगे मेरे हृदय में…हे नीरवनाथ ! …
मेरा मस्तक…अपनी चरणधूलि तले झुका दे मेरे सारे अहंकार को आँखों के पानी में डुबा दे मैं करता हूँ अपना ही बखान छलता हूँ खुद को, रचता हूँ स्वांग …
तुम्हारे साथ नित्य विरोध अब सहा नहीं जाता दिन-प्रतिदिन ये ऋण बढ़ता ही जा रहा है न जाने कितने लोग तेरी सभा में आये तुझे प्रणाम किये…चले गये मलिन …
प्रतिदिन हे जीवनस्वामी ! क्या तेरे सामने खड़ा रहूँगा हाथ जोड़कर हे भुवनेश्वर ! क्या तेरे सामने खड़ा रहूँगा तेरे अपार आकाश तले मैं चुपचाप…एकांत में नम्रहृदय, द्रवितनयन लिये …
अनुमति मिल गयी मित्रो ! मुझे विदा करो मैं प्रस्थान करने वाला हूँ अंतिम-नमन स्वीकार करो मित्रो ! मुझे विदा करो मैं द्वार की कूंजी वापस करता हूँ घर …
तुझसे मिलने के लिये मैं अकेला ही निकला था न जाने वह कौन है जो नीरव अंधकार में मेरा पीछा करता रहा उससे बचना तो चाहा लेकिन…बच न पाया …
हे नाथ ! मुझे जगाकर आज जाओ ना जाओ ना, करो करुणा की बरसात घने वन की डाली-डाली पे वृष्टि झरे…आषाढ़-मेघ से घनघोर बादल आलस भरे डूबी निद्रा में …
सीमा में असीम तुम बजाओ अपने सुर झलके तेरा प्रकाश मन में मधुर-मधुर वर्ण में…गंध में गीतों के छंद में तेरी लीला से, हे अरूप ! जाग उठे अंतःपुर …
जिस दिन मृत्यु…तेरे द्वार पर आकर खड़ी हो जायेगी उस दिन कौन-सा धन दोगे उसे ? मैं खाली हाथ अपने अतिथि को विदा नहीं करूँगा अपने प्राणों के पंक्षी …
तोड़ो…तोड़ो…तोड़ो और विलंब न करो धूल में गिरकर यहीं मिट न जाऊँ कहीं भय है मन में यही फूल तेरी माला में गूँथ पायेगा या नहीं अपने हाथों से …
ऊँचे सिंहासन को छोड़कर तुम नीचे उतरे… और मेरे घर के दरवाजे की आड़ लेकर चुपचाप खड़े रहे मैं एकांत…कोने में बैठकर गुनगुनाता रहा…सुर तेरे कानों तक पहुंचे जिसे …
क्या तुमने उसकी पद्ध्वनि नहीं सुनी प्रतिदिन-प्रतिपल वह आ रहा है निरंतर उसके स्मरण में मैंने कितने गीत रचे स्वरलिपि में…’वही’ उदघोषित हो रहा है वैशाख की खुशबूदार धूप …
जीवन में जितनी पूजा करनी थी पूरी नहीं हुई फिर भी…मैं हारा नहीं कली खिलने से पहले मुरझा गयी गिर गयी धरा पर फिर भी…मैं हारा नहीं नदी की …
फूलों की तरह प्रस्फुटित हो मेरे गान समझूंगा हे नाथ ! मिल गया तेरा दान जिसे देखकर मैं सदा आनंदित होता रहूँगा अपना समझकर तूने जो दिया है उपहार …