Author: गंगाधर ढोके
उस तरह नहीं’ मिलना जिस तरह समुद्र से मिलती है नदी तुम मिलना उस तरह जिस तरह दरवाजे के दो पट मिलते हैं परस्पर गंगाधर
भरोसा अभी जबकि नहीं आयी हो तुम तुम्हारे आने की आहट भर से महकने लगा है घर जाते जवाते अपनी नाजुक नरम हथेलियों से तुमने घर नहीं भरोसा सौंपा …
तुम्हारा आना वैसे ही था तुम्हारा आना जैसे पहाड़ों पर बारिस का. उस गमक का आना जो आती है किसान के घर खेत से फसल आने पर तुम्हारा आना …
हर कोई अपने हैं अब केवल सपने हैं दुःख सुख के साथी सब गिनती में कितने हैं झूठे हो याकि सच्चे अजमाया किसने हैं सीरत सबकी इक सी अन्दर …
जिन दरख्तों की गहरी जड़े हैं वे आँधियों में तनके खड़े हैं के बारां से मुझको डरा मत तेरे घर भी कच्चे घड़े हैं सच इन्सां से लगने लगे …
चूक जाने के बाद भी बचा रहता है कजरौटे में अंजन जैसे सूखने के बाद नदी की रेत में बची रहती है नमी घोंसले में शेष रह जाते हैं पक्षियों के पंख तुम्हारे जाने के बाद भी बचे हैं स्मृतियों के अवशेष जैसे बन्जारे छोड़ जाते हैं खुली जमीन में अपने बसाहट के चिह्न
पेड़ पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं होते वे होते है घर के पते की तरह उन दिनों जब गाँव में नहीं हुआ करते थे – डाकघर -बिजली दफ्तर तब पेड़ …
ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे फरिश्ते आ के ख़्वाब मेँ हिसाब माँगने लगे इधर किया करम किसी पे और इधर जता दिया नमाज़ पढ़के आए और शराब …
तेरी हर बात मोहब्बत में गवारा करके दिल के बाज़ार में बैठे हैँ ख़सारा करके एक चिन्गारी नज़र आई थी बस्ती मेँ उसे वो अलग हट गया आँधी को इशारा …