Author: अशोक धर
यह उठते हुए नए साल की सुबह है धुंध कोहरे और काँपती धरती की अजीब स्तब्ध सनसनी में छटपटाती सूरज भी जैसे मुँह छुपा रहा बीते साल के रक्तिम …
अब जो आई है वो साथ लाई है हर मौसम का रंग ये मौसम है नर्म पत्तों का ये मौसम है सुर्ख़ गुलाबों का खिले हैं प्यार के हज़ार …
सुनो, साधो सुनो, जो सच तुमने दुनिया के सामने रखा जो इतिहास तुमने रचा और कहा यही है स्त्रियों का सच अपने दिल पर हाथ रख कर कहना कितने …
मैं एक मीठी नींद लेना चाहती हूँ 40 की उम्र में भी चाहती हूँ कि मेरे सर पर हाथ रख कर कोई कहे सब ठीक हो जाएगा ठीक वैसे …
मेरे साथ-साथ भाग रहा जंगल दोनों तरफ और मैं सीधा सुरक्षित रास्ता छोड़ भाग जाना चाहता हूँ जंगल में एक जंगल चित्र में एक चित्र से बाहर मैं बाहर …
माँ के उरोज़ों के बीच बहती-लहराती नदी में डूबता-उतराता रहता था बचपन में आज मैं साठ की दहलीज पर हूँ कई तीखी-गहरी, मदमाती-उफनती नदियाँ देख चुका हूँ कई नद, …
मैं मौन का दरवाज़ा लांघता हूँ बिना शब्द किए अन्त की ओर यहाँ न रंग दिखते हैं न रेखाएँ न रूप न अरूप दिखती है एक चमकीली मछली जूझती …
एक ही राह पर चलते चले जाने और हर आंधी से ख़ुद्को बचाते रहनेकी आदत ने आख़िर मुझे पटखी दिया उस अजीबो-गरीब हवेली में बंद होते गएजिसके बाहरी-भीतरी दरवाज़े …
आगे देखते हुए पीछे देखना और पीछे देखते हुए आज को फलांग आगे की अटकलें एक हिक़मत पीछे त्रास, सामने लोभ और आगे ‘कुछ भी नहीं’ का अंधेरा स्मृति …
एक मायावी तंत्र में जकड़ा कातर चुप्पी में गुम भभक उठता हूँ कभी-कभी तो याद आती है माँ! सारे तारों को बराबर संतुलन में खींचे रखते हुए भी अपनी …
मैं रंगों से हो कर रंगों में गया हूँ रेखाओं से निकल कर रेखाओं में समाया हूँ यह संयोजन नहीं सन्नाटा है नहीं, सन्नाटे का रंग-दर्शन है जहाँ मैं …
ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गये होते इक पल अगर भूल से हम सो गये होते ऐ शहर तिरा नामो-निशाँ भी नहीं होता जो हादसे होने थे अगर …
महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था हाँ तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था ये हादसा किस वक्त कहाँ कैसे हुआ था प्यासों …
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई न बस …
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे पत्थर की तरह …
सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते ? मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना ? मैंने मुख्य उसी को जाना जो …
शिशिर न फिर गिरि वन में जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में कितना कंपन तुझे चाहिए ले मेरे इस तन में सखी कह रही पांडुरता का …
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो। होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो, मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो। नही भोगनी यह …
नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है। सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥ नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं। बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥ करते अभिषेक पयोद हैं, …
विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸ नहीं …
भारत माता का मंदिर यह समता का संवाद जहाँ, सबका शिव कल्याण यहाँ है पावें सभी प्रसाद यहाँ । जाति-धर्म या संप्रदाय का, नहीं भेद-व्यवधान यहाँ, सबका स्वागत, सबका …
किसी जन ने किसी से क्लेश पाया नबी के पास वह अभियोग लाया। मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं। नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं। उन्होंने शांत कर उसको …
निरख सखी ये खंजन आए फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाए फैला उनके तन का आतप मन से सर सरसाए घूमे वे इस ओर वहाँ ये …
मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की अरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की दिखता …
न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में खुदा होता हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता …