Author: अभिराज
कोई निराशावादी नहीं होता है निराशा मे भी इंसान आशावादी होता है निराशा होती है पल दो पल के लिए निराशा से ही तो आदमी आशावादी होता है। जब …
बङी-बङी पढाई तुम्हें अच्छा उठाएगी पर, ज्ञान की पढाई जिन्दगी भर साथ निभाएगी। प्रातः उठना जल्दी सोना बङे बूढों के पाँव छूना बात-बात पर मुस्कुराना होगा ये तो सिर्फ …
अब की बार मैं ऐसा देश बनाऊँगा इन्सान बनाने से पहले वहाँ मजहब बनाऊँगा बहुत से मजहवों में हक इन्सानियत का मजहब बसाऊँगा कोई रहे न रहे मैं उसमें …
मेरा नाम है गुङिया मैं हूं सौ साल की बुङिया बचपन में सब मुझे गले लगाते थे मेरी डुमक-डुमक चाल पर इतराते थे मुझे लोरी बिन चाहे ही सुनाते …
चल मरदाने, सीना ताने, हाथ हिलाते, पांव बढाते, मन मुस्काते, गाते गीत । एक हमारा देश, हमारा वेश, हमारी कौम, हमारी मंज़िल, हम किससे भयभीत । चल मरदाने, सीना …
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी प्रिय तुम आते तब क्या होता? मौन रात इस भान्ति कि जैसे, कोइ गत वीणा पर बज कर अभी अभी सोयी खोयी सी, सपनो …
नागाधिराज श्रृंग पर खडी हुई, समुद्र की तरंग पर अडी हुई, स्वदेश में जगह-जगह गडी हुई, अटल ध्वजा हरी,सफेद केसरी! न साम-दाम के समक्ष यह रुकी, न द्वन्द-भेद के …
है यह पतझड़ की शाम, सखे ! नीलम-से पल्लव टूट गए, मरकत-से साथी छूट गए, अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम, सखे ! है यह पतझड़ की शाम, …
छोड़ घोंसला बाहर आया, देखी डालें, देखे पात, और सुनी जो पत्ते हिलमिल, करते हैं आपस में बात;- माँ, क्या मुझको उड़ना आया? ‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’ डाली से …
नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी। विहग, बंदी और चारण, गा रही है …
लहर सागर का नहीं श्रृंगार, उसकी विकलता है; अनिल अम्बर का नहीं खिलवार उसकी विकलता है; विविध रूपों में हुआ साकार, रंगो में सुरंजित, मृत्तिका का यह नहीं संसार, …
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन। एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ, वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ, छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन, गीत …
फैलाया था जिन्हें गगन में, विस्तृत वसुधा के कण-कण में, उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने! साथी, साँझ लगी अब होने! खेल रही थी धूलि …
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी, तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी, मैं तुम्हारे …
महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में पद्यबध्द किया है …
गीले बादल, पीले रजकण, सूखे पत्ते, रूखे तृण घन लेकर चलता करता ‘हरहर’–इसका गान समझ पाओगे? तुम तूफान समझ पाओगे ? गंध-भरा यह मंद पवन था, लहराता इससे मधुवन था, …
रात का-सा था अंधेरा, बादलों का था न डेरा, किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर! स्वप्न था मेरा भयंकर! क्षीण सरिता बह रही थी, कूल से …
पड़ गया बंगाले में काल, भरी कंगालों से धरती, भरी कंकालों से धरती! दीनता ले असंख्य अवतार, पेट खला, हाथ पसार, पाँच उँगलियाँ बाँध, मुँह दिखला, भीतर घुसी हुई …
इतने मत उन्मत्त बनो! जीवन मधुशाला से मधु पी बनकर तन-मन-मतवाला, गीत सुनाने लगा झुमकर चुम-चुमकर मैं प्याला- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह, इतने …
जब रजनी के सूने क्षण में, तन-मन के एकाकीपन में कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता, त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन! जब उर की पीडा से …
नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्णान फिर-फिर! वह उठी आँधी कि नभ में छा गया सहसा अँधेरा, धूलि धूसर बादलों ने भूमि को इस भाँति घेरा, रात-सा दिन …
दुख सब जीवन के विस्मृत कर, तेरे वक्षस्थल पर सिर धर, तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था! मैं कल रात नहीं रोया था! प्यार-भरे उपवन में …
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ; कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर मैं सासों के दो तार लिए फिरता …
सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! नहीं खोजने जाता मरहम, होकर अपने …
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार …