शाम को आने मे थोड़ी देरीहो गयी उसकोघर का माहौल बदल चुकाथा एकदमवो सहमी हुई सी डरी डरीआती है आँगन मेहर चेहरे पर देखती हैकई सवालसुबह का खुशनुमा माहौलधधक रहा था अबउसके लिए बर्फ से कोमल हृदय मेदावानल सा लग रहा थावो खामोश रह कर सुनती है बहुत कुछऔर रोक लेती है नीर कोआँखो की दहलीज परपहुचती है अपने कमरे मेजहाँ वो रो सकती हैयहाँ उसे डर नही लगता हैरोने मेजहाँ की दीवारो पर नमीहमेशा बरकरार ही रहती हैउसकी सबसे अज़ीज दुनियाँउस कमरे मे ही है अब तककभी वो वहाँ एक स्वपन देखतीहै, जिसमे चुन लेती है अपना राजकुमारकभी खुशी मे नाचने लगती हैअनायस्स ही कुछ सोचकरकभी कभी तो आंशू भी गिर जाते हैहस्ते हस्ते उसकी आँखो सेसमुद्र की लहरो की तरहविचार आते है उसके मन मे भीवो एक डोर से बधी हैजिसका छोर बहुत से हाथों मे हैवो उड़ना चाहती है पतंग कीतरहपर अपने ही आसमान मे जहाँबाज और गिद्धों का ख़तरा ना होवो बुनती है उड़ानो के बटनख़यालो की कमीज़ मेकभी वो ओढ़ लेती है दुपट्टा पुरानाजिस पर कभी सितारे हुआ करते थेवो रेडियो जॉकी बनना चाहती हैपर घर मे गुमसुम ही रहती है ||वो बहुत कुछ कहना चाहती हैपर कौन सुनेगा उसकी ||
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नारी विवशता को अच्छे शब्दों में बांधा आपने बहुत खूबसूरत ……………….!!
बहुत बहुत आभार निवतिया जी आपका
सही कहा आपने।अच्छी रचना नारी की विवशता को लेकर।
बहुत बहुत आभार भावना जी आपका
Khoobsurat likha aap ne
bahut bahut aabhar Arun Ji…
bahut khoobsoorati se vivashat ko darshaaya hai aapne…………….
bahut bahut aabhar aapka, protsahan hetu..
सुंदर अनुभूति सुन्दर कविता
आपका बहुत बहुत आभार।
अति सुन्दर………………
मेरी रचनाएँ “भिखारी” और “पूनम का चाँद” भी नजर करें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
बहुत बहुत आभार आपका, ज़रूर जनाब…………….