ज़िन्दगी, ज़िन्दगी की हो गई।पर हमें रूसबा और बेख़बर कर गई।ज़िन्दगी की तलाश में घूमा यूँहीं।फ़िक्र मेरी और हद से बढ़ गई।सिलसिला चलता रहा राहों में यूँहीं।खुले आम उनकी आबरू ख़ाक हो गई।और बाक़ी बची नीलाम हो गई।बिक रही अब तो आबरू बाज़ारों में।ज़िस्म की क़ीमत लगती अब हज़ारों में।पर क्या करे सहमती दिल ही दिल में?और धीरे-धीरे सुपुर्दे ख़ाक हो गई।राज़ दफ़ने हुए कई से इन कब्रों में।कब्र भी महरूम और बेख़बर ही रहीं।कब्रों के मुर्दे भी गवाही देने आते हैं। उन्हें भी निकलबा लेते हैं अपनी बातों से।वे सोचतीं अब भी पीछा नहीं छोड़ते हैं ज़ालिम।अब हमें भी नफ़रत हुई ऐसे इन्सानों से।फूटते रहे बादल आसमानों अक़्सर यूँहीं।मची खल-बली,अंदर-बाहर,कब्रों और श्मशानों में।क्या फूटा है कभी गुब्बारा राख़ का?इन्सान कहेंगे ना, पर शव कहेंगे यह चर्चा आम हो गई।कभी उफ़ना था दरिया ज़िन्दगी और पाने का।पर इस ज़माने को देख अश्कों में बह गई।फ़रिश्ता भी देखकर हैरान है अब तो।फ़रमाते रहे क़िस्मत अब आपकी रह गई।ज़लज़ले अब तो आते हैं ख्यालातों अक़्सर।हालात और भी बद् से बद्तर होती गई।जवाब दे दो हे! मनुजों ज़मानें वालों।क्या तुम्हारी इंसानियत पूरी तरह मर गई? सर्वेश कुमार मारुत
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bhut bdhiya marut ji………………………..
धन्यवाद
Bahut sundar
धन्यवाद
बहुत खूबसूरत …..इंसानियत को जिन्दा ही नही चेतन भी रखना अति आवश्यक है।
धन्यवाद
bahut khoobsoorat…………
धन्यवाद
सुंदर रचना.
मेरी रचनाएँ “भिखारी” और “पूनम का चाँद” भी नजर करें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
धन्यवाद
sundar ………………
धन्यवाद
सर्वेश जी अच्छी कलात्मकता… सुंदर…
धन्यवाद