लोग कहते हैं कि मैं हूँ ‘शायरे जादू बयाँ’[1],
’सदर-ए- मआनी’[2], ‘दावर-ओ-अल्फाज़’[3]’ , अमीरे-शायरां[4] ।
और ख़ुद मेरा भी कल तक , ख़ैर से था ये ख़्याल ।
शायरी के फ़न में हूँ ,मिनजुमला -ए-अहले -कमाल[5] ।
लेकिन अब आई हैं जब इक गूना मुझमें पुख़्तगी[6] ।
जेहन[7] के आईने पे काँपा हैं अक्स-ए-आगही[8] ।
आसमाँ जागा है सर में और सीने में जमीं ।
तब मुझे महसूस होता है कि मैं कुछ भी नहीं ।
जिहल की मंज़िल में था मुझको गुरूर-ए-आगही[9] ।
इतनी ‘लामहदूद’[10] दुनिया और मेरी शायरी ।
‘जुल्फे-हस्ती’[11] और इतने बेनिहायत पेचो-ख़म ।
उड़ गया ‘रंगों तअल्ली’[12] खुल गया अपना भरम ।
मेरे शेरों में फ़क़त एक तायराना[13] रंग है ।
कुछ सियासी रंग है कुछ आशिकाना रंग है ।
कुछ ‘मनाज़िर[14]‘ कुछ ‘मबाहिस’ [15] कुछ ‘मसाइल[16]‘ कुछ ख़याल ।
एक उचटता सा जमाल[17] एक ‘सर-ब-जानू[18]‘ सा ख़याल ।
मेरे ‘कस्त्रे-शेर’[19] में ‘गोगाए-फिक्रे-नातमाम’[20] ।
इक दर्द अंगेज दरमाँ[21] इक शिकस्त आमादा ज़ाम[22] ।
गाह सोजे चश्मे -अबरू[23] ,गाह सोजे नाओ नोश[24] ।
गाह खलवत[25] की ख़ामोशी ,गाह जलवत[26] का खरोश ।
चहचहे[27] कुछ मौसमों के , जमजमे[28] कुछ ज़ाम के ।
देरे-दिल[29] में चंद मुखड़े ‘मरमरी असनाम’[30] के ।
चंद जुल्फ़ों की सियाही ,चंद रुखसारों[31] की आब ।
गाह ‘हर्फ़े बेनवाई’[32] गाह शोरे इन्क़लाब ।
गाह मरने के अजायम[33] गाह जीने की उमंग ।
यही ओछी-सी बातें बस यही सतही से रंग ।
बेख़बर था मैं कि दुनिया राज़ अन्दर राज़ है ।
वो भी गहरी ख़ामोशी है जिसका नाम आवाज़ है ।
यह सुहाना बोसतां[34] सर्वो गुलो शमशाद[35] का ।
इक पल भर का खिलंदरापन है आबो-बाद[36] का ।
‘इब्तिदा’ और ‘इंतिहा’[37] का इल्म नज़रों से निहाँ ।
टिमटिमाता सा दिया दो जुल्मतों[38] के दर्मियाँ ।
‘अंजुमन’[39] में ‘तखलिए’[40] हैं ‘तखलियों’ में ‘अंजुमन’ ।
हर ‘शिकन’[41] में इक ‘खिंचावट’[42] , हर ‘खिंचावट ‘ में ‘शिकन’ ।
हर ‘गुमाँ’[43] में इक ‘यकीं’[44] सा हर ‘यकीं ‘ में सौ ‘गुमाँ ‘ ।
नाखुने-तदबीर[45] में भी इक गुत्थी बे-अमां[46] ।
एक-एक ‘गोशे’[47] से पैदा ‘बुसअते-कोनो-मकाँ’[48].
एक -एक ‘खोशे’ में[49] पिन्हाँ ‘सद-बहारे-जाविदाँ’[50]
‘बर्क़’ की लहरों की बुसअत[51] अल-हफीजो-अल-अमां’[52] ।
और मैं सिर्फ़ एक कोंदे की लपक का ‘राजदाँ’[53] .
‘राजदाँ’ ‘क्या मदहख्वां’[54] और ‘मदहख्वां’ भी ‘कमसवाद’[55] ।
‘नाबलद-नादान-नावाकिफ-नादीदः -नामुराद’[56] ।
क्यों न फिर समझूँ ‘सुबक’[57] अपने सुखन के रंग को ।
नुत्क[58] ने अलमास[59] के बदले तराशा संग[60] को ।
” लैला-ए-आफाक”[61] पलटती ही रही पैहम[62] निक़ाब ।
और यहाँ ‘औरत’ ‘मनाज़िर’[63] ‘इश्क’ ‘ सहबा’[64] ‘इन्कलाब’ ।
पा रहा हूँ शायद अब इस ‘तीरह’[65] हल्क़े से निज़ात ।
क्योंकि अब ‘पेश-ए-नज़र’ हैं ‘उक्दा हाये-कायनात’[66] ।
ये भिंची उलझी जमीं ये ‘पेच-दर-पेच’ आसमाँ ।
‘अल-अमानो-अल-अमानो-अल-अमानो-अल-अमां’[67] ।
इक ‘नफ़स’[68] का तार और ये ‘शोरे -उम्रे- जाविदाँ[69] ।
इक कड़ी और उसमें जंजीरों के इतने कारवाँ ।
एक-एक लम्हे में इतने ‘कारवाने -इन्कलाब’
एक-एक जर्रे में इतने ‘माहताब-ओ-आफ़ताब’[70] ।
इक ‘सदा’[71] और उसमें ये लाखों हवाई दायरे[72] ।
जिसके ‘शोबों’[73] को ‘अगर चुनले तो दुनिया गूंज उठे ।
एक ‘बूँद’ और ‘हफ्त -कुलज़म’[74] के हिला देने का जोश ।
एक गूंगा ख्वाब और ताबीर का इतना खरोश[75] ।
इक ‘कली’ और उसमें सदियों की ‘मताअ-ए- रंगों-बू’[76] ।
सिर्फ एक ‘लम्हे’[77] की राग में और ‘करनों’ का लहू[78] ।
हर कदम पर ‘नस्ब’[79] और ‘असरार’ के इतने खयाम[80] ।
और इस मंजिल में मेरी शायरी मेरा कलाम ।
जिसमें ‘राजे-आस्मां ‘ है और ना ‘असरारे-जमीं ।.
एक ‘खस’ एक ‘दाना’ एक ‘जौ’ एक ‘ज़र्रा’[81] भी नहीं ।
‘नौ-ए-इंसानी’[82] को जब मिल जाएगी ‘रफ़्तार-ए-नूर’[83]
‘शायरे-आज़म’ का तब होगा कहीं जाकर ‘ज़हूर’[84]
‘खाक’ से फूटेगी जब ‘उम्रो-अबद’[85] की रौशनी ।
झाड़ देगी मौत को दामन से जिस दिन जिंदगी ।
जब हमारी जूतियों की ‘गर्द’ होगी ‘कहकशां’[86] ।
तब जनेगी ‘नस्ले-आदम’[87] ‘शायरे-जादू-बयाँ’[88] ।
‘बज़्म’ में ‘कामिल’[89] ना ‘फन्ने-शेर ‘ में ‘यकता’[90] हूँ में ।
और अगर कुछ हूँ तो ‘ नकीब-ए-शायरे-फ़रदां’[91] हूँ मैं ।
शब्दार्थ:
- ↑ जादुई वर्णन का कवि
- ↑ अर्थ-नीति-शिरोमणि
- ↑ शब्दों का न्यायाधीश
- ↑ कवियों का सरदार
- ↑ अत्यंत प्रतिभाशाली कवियों में से एक
- ↑ थोड़ी-सी प्रौढ़ता
- ↑ मष्तिष्क
- ↑ बुद्धि का प्रतिबिम्ब
- ↑ बुद्धिमता का घमंड
- ↑ असीम
- ↑ सॄष्टि रूपी केश
- ↑ शेखी का रंग
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- ↑ दृश्य, मंज़र का बहुवचन
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