ढलता रहता हूँ
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हर रोज़, दिन सा, ढलता रहता हूँ !बनके दिया सा, जलता रहता हूँ !!
कोई चिंगारी कहे, कोई चिराग ! यूँ नजरो में, बदलता रहता हूँ !!
सब के सब बन बैठे है सारथि मेरे !इशारो पे पग बांधे चलता रहता हूँ !!
सूरज था, झंझटी बादलो में घिर गया कभी छुपता, कभी निकलता रहता हूँ !!
किनारे आँखों छाँव लेकर बैठा “धर्म” !खुद अपनी तपिश में जलता रहता हूँ !!
!!!डी के निवातिया
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Bahut hi sundar…..
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद ………Anu ji.
Gajab sir . Gajab
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद ………Arun.
बहुत सुंदर……………
ज्यों ज्यों केश पर चांदी चढ़ती
त्यों त्यों मन में चिंता बढ़ती
केश चांदी पा शीतल हो जाता
मन में सूरज सी तपिश बढ़ती
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद …………..vijay.
अति सुन्दर कविता
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद …………..chandra Mohan
bhut sundar rachana………….. khoob likha hai apne………
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद ……MADHU Ji.
Very nice……………………………..
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद ………….SAvianaka.
क्या बात है लाजवाब…..शब्दों के संगम लाजवाब….मकता बेहतरीन………
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद ………………BABBU JI.
ग़ज़ल के मुखड़े बहुत सुंदर… लाज़वाब है… बहुत अच्छी तरह आपने इसे सँवारा और सजाया है…
आपकी प्रोत्साहन करती अमूल्य प्रतिक्रिया का बहुत धन्यवाद ………………BINDU JI.