काँपते हैं गीत मेरेसुर पतझर बन गएशब्द अपनी धुन में रहेस्वर नश्वर बन गएदूर नभ में फैलती थीलय कोकिल कंठ कीवीरान में चीत्कार हैकिसी रिक्त कंठ कीवेदना से गीत के थेबोल भंवर बन गएकाँपते हैं गीत मेरेसुर पतझर बन गएविष से भरा अमृत कलशमन को वो दे गएबन जाय अभिशाप क्षण मेंवर ऐसा दे गएहै मन मंदिर उन्हीं काजो पत्थर बन गएकाँपते हैं गीत मेरेसुर पतझर बन गएकल्पना की आरती केशब्द दीप हैं सभीतेरा अधर पट खोलतागीत मीत था कभीअब नयन को ही रिझानेअश्रु भोंरे बन गएकाँपते हैं गीत मेरेसुर पतझर बन गएगीत गुंजन में कभी भीकुछ कम्पन था नहींशब्द बंधन की वेदनाथी ना बिलकुल कहींपीर के घुंघरू सभी अबबन अक्षर रह गएकाँपते हैं गीत मेरेसुर पतझर बन गए—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे 00000
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बेहद उम्दा…………
बहुत बढ़िया.. सुंदर ख्याल..
सुंदर भावों से सुसज्जित रचना.
अति सुंदर !
Bahut badhiya
अच्छी कविता
bhut sundar rachana
………..बरसो मेघ……….भी पढ़ें और अपना अमूल्य प्रतिक्रिया दें।