मैं अपने मन की आरज़ू पर ही लिखता हूँ
अपने व दूसरों के सुखों – दुखों को
मात्र एक माला में पिरोता हूँ
तुम क्या जानो यारों
इस जद्दोज़हद में
मैं क्या पाता क्या खोता हूँ
अपने ही सुख पर हंसता
अपने ही दुखों पर रोता हूँ
मैं अपने मन की आरज़ू पर ही लिखता हूँ………
जिसपर बीती वो ही जाने
दूजा न कोई उसका दुख पहचाने
किस तरह लोग मिलते हैं – बिछड़ते हैं
अपने बन जाते हैं अनजाने
जिस पर बीती वो ही जाने……
तुम क्या जानो यारो दर्द क्या होता है
डूबती सांसो, मिटते जीवन का आभास क्या होता है
तुम क्या जानो यारो………..
मुझ पर क्या बीती इसका तुम्हें आभास नहीं
हर रात के बाद सवेरा होता है
पर हर सवेरे के बाद सुरमई शाम नहीं
मधुकर से पूछो कभी
कि मधुवन में वह क्यों भटकता धैर्य न खोता है
एक नेत्रहीन से पूछो
वह कब जागता कब सोता है
उसके लिए तो शायद
दिन भी रात्रि समान होता है
नदियों से पूछो कभी
वह कब ठहरती कब चलती हैं
वह तो बस जोगन की भांति
सबको अमृत प्रदान करती चलती रहती है
तुम क्या जानो…………….
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अति सुन्दर
देखने का नजरिया अपना अपना है…..यकीनन…..बहुत सुन्दर भाव हैं……
Apka hardik dhanyavad……..bas man m bhav ate h to likh deta hu …….koi hindi k kshetra mai sthapit kavi nhi hu par ek engineering student hone k sath thoda likh leta hu
सुंदर भावों से सुसज्जित रचना.
उत्तम विचार …………….अति सुंदर !
Sundar ati sundar
Apka hardik dhanyavad……..bas man m bhav ate h to likh deta hu …….koi hindi k kshetra mai sthapit kavi nhi hu par ek engineering student hone k sath thoda likh leta hu
kavita ki bhav achchhi hai
khoobsurat rachana apki…………..बरसो मेघ भी पढे।
सुंदर