ज़िन्दगी हमें झकझोरती रही, फ़िक्र के फन्दों में उलझाती रही। सुन-अनसुने हालातों में डूबा, जो हमें डुबाते ही गये। किस्तियाँ भी बनीं जले बांसों की; और समंदर में कहाँ पानी था?, फ़िर भी हिचकोले लगाती रही। फ़टते रहे ज़्वार-भाटे जाने कितने?,और हमें बुलबुलों में समा गयीं ।आँखों में अश्कों का दरिया था, जो हमेंशा उफनती ही रही। सर्वेश कुमार मारुत
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सुन्दर भाव हैं……आप अपनी रचना का अवलोकन करेंगे तो पाएंगे कि आप इस को और सुंदर कर सकते…. ‘हमें बुलबुलों में समाती रही’ ….’समाना’ स्वयं होता है… हम बुलबुलों में समाते रहे हो सकता… जितना मुझे ज्ञान है….और आगे भी….”आँखों में सागर का दरिया’ सागर और दरिया….शायद कहना चाहते थे अश्कों का दरिया पर आप सागर का दरिया लिख गए… उफनाती रही….भी दोषपूर्ण है….
हाँ , अवश्य
Sundar bhav…Sharmaji ki baato par dhyan de…
अवश्य
Sunder bhaav.
धन्यवाद
Sarvesh, ek or to kashti doob rahi hai doosri or samundar me paani nahi hai. taartamy bigad gaya hai. Punh avlokan karen.
जी , अवश्य