अपनी पड़ी मन को अपनी पड़ीसपने दिखा कर है अब भी खड़ीइक पल न ठहरे, है मुश्किल बड़ीअपनी पड़ी मन को अपनी पड़ी |इस पल यहाँ तो है उस पल वहाँबिन पूछे चल दे, जी चाहे जहाँगायब सी रहती है, चंचल बड़ीअपनी पड़ी मन को अपनी पड़ी |चाहत है देने की खुशियाँ मगरदे जाती हर वक़्त मुश्किल डगरमाया से इसकी है जमती बड़ीअपनी पड़ी मन को अपनी पड़ी |अब थम भी जाओ, हुई देर है सुनो बात मेरी, समर शेष हैरुको केंद्र में, है ये अनुपम घडीजरा साँस ले लो हो जाओ खड़ी |-धीरेन्द्र ‘प्रखर’
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अच्छी रचना….
sundar………..
bhut sahi aur khoobsurat bat…………
बहुत सुन्दर……………….