माँग लिया हमने कुछ उनसे,झट उन्होंने मुख अपना मोड़ा।तोड़ लिए अपने दरवाजे,टक-टकी लगाए मैंने देखा ऐसे।कुछ मिल जाए-कुछ मिल जाए ,यह उम्मींद लगाए मैं बैठा।कुछ देख फिर मैंने ,अपने कदम बढ़ा लिए।फिर मैंने बस इतना सोचा,यह ज़ीवन का कटु है सच।कोई नहीं दे सकता हमको,खाने और बनाने को।और कुछ मुझे दे देते,हमारा शरीर बचाने को।पर हमें मिल सका ना कुछ,यह सोच मन बड़ा हताश है।फिर यही सोच लेता हूँ मन में,यह पिछले जन्मों का अहसास है।यही समझ कर रुक जाता हूँ,ज़ीवन अपना कंगाल है।भूख लगी और नहीं लगी है,तन कहता और नहीं कहता है।कुछ तो हमको मिल जाए,मिल जाए तो अभिनन्दन उसका।और नहीं मिला तो फिर क्या ?,हम तो वही फटी झोली हैं और फटे हाल हैं।पर मैं इस हाल को लेकर ,किस-किस के घर जाऊँ?हम तो फटी झोली हैं फटे हाल हैं,पर उनके सबके फटे हृदय हैं।और हम से भी ज़्यादा ,उन बेचारों का बुरा हाल है।पर हम फटी झोली और फटे हाल हैं,इससे भी ज़्यादा हमारा क्या बुरा हाल है ? सर्वेश कुमार मारुत
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bhut khoob likha apne sarvesh ji………
धन्यवाद , मधु जी
बहुत खूब………………
रहिमन वो नर मर चुके जो कछु माँगन जाय
उनसे पहले वो मुए जिन मुख निकसत नाय
धन्यवाद, विजय जी
Sundar rachna Sarvesh ji…
धन्यवाद,अनु जी
बहुत सुन्दर…….. अच्छी रचना……
धन्यवाद, काज़ल जी
Bahut khub sarvesh jee……..tisari line ki pankti thoda atpata sa dikh raha hai …….kripaya ishe badal len…… thanks.
धन्यवाद, बिन्देश्वर जी
हाँ, श्रीमान जी ज़रूर
Sarvesh jo kahnaa chaah rahe ho or behtar dhang se kahne kaa prayaas karo……
धन्यवाद,श्रीमान जी
हाँ, अवश्य करेंगे, सुझाव के लिए आपको पुनः धन्यवाद श्रीमान जी
Sunder………
धन्यवाद , बाबू जी
Nice
धन्यवाद, अरुण जी
sundar rachna sarvesh ji…………………
धन्यवाद! सोनित जी
अति सुंदर सर्वेश ………मगर रचना उलझी जी नजर आयी। आप और बेहतर कर सकते थे ।