कंपित! कत्ल की धार खडी ,आर्त्त गायें कह रही –यह देश कैसा है जहाँ हर क्षण गैया कट रही !आर्त्त में प्रतिपल धरा, वीरों की छाती फट रहीयह धरा कैसी है जहाँ हर क्षण ‘अवध्या’ कट रही |अाज सांप्रदायिकता के जहर में मार मुझको घोल रहा,सम्मान को तु भूल ,मुझे कसाई को तू तोल रहाहे भारत! याद कर पूर्व किससे था समृद्धि का वास,शस्य-श्यामला-पुण्य-धरा पर फैला रहता था धवल प्रकासनहीं कहीं जगत् में गोमय, गोमुत्र से सुंदर सुवासआज भी विज्ञान को सदा सतत् रहती मुझको तलाश |ज्ञानी ज्ञान-विज्ञान से उन्नतजन चरित्र से उच्च समृद्धिवान् ,व्रती व्रत में पूर्ण निरत सदाधर्मार्थ-काम-मोक्ष चतुर्दिक कल्याण |सर्वस्व सुलभ था मुझसे,कहाँ आत्महत्या करते किसान ?कृषि उन्नत थी , धर्म उन्नत थाअनुकूल प्रकृति से लोग बलवान |जग में मुझसे था संपन्नता का वासधरा पर विविध रत्नों से सुंदर न्यासब्रह्मांड में पुजित सदा, अनंत काल से उत्कर्षमान जा रे विश्व ! ले रोक विध्वंस, हे भारतवर्ष !करुणामयी, वात्सल्यता ‘पशु’ होकर तूझे सीखला रही,एक लुप्त सा अध्याय! ‘मनुज’ यह तूझे नहीं गला रही !आज विश्व को देख,मरता कैसा भूखों हो क्लान्त,जीवन में शांति कहाँ , हो रहा बंजर ह्रदय उद्भ्रांत ?गोचर-भूमी सब लूट, दाँतों से छिन रहा तू तृण,घी,दुग्ध, तक्रादी पीता रहा,आज रक्त पी रहा कर मुख विस्तीर्ण !जल रहा विपीन आतंक से,संतप्त धरा, हूँ असहाय!मारो या काटो मुझे !दीन! बलहीन!तुम्हारी गाय !बछडों को करके अधीर, देती तुम्हें सदा हम क्षीरहूँ विश्वमाता, सोच रही, हो संतप्त अति गंभीरक्या धारे रहेंगे ‘वे’ देह सदा, जो निर्ममता से देते चीर!हो चुकी असंतुलित ‘धरा-गगन’, कैसे रहे ‘उदधि’,’चमन’ हों धीर ?यह करुण स्वर फैला रहा,नीलांबर में अधिकाधिक चित्कार,नर योनि हो,तुम धन्य हो,पुरुषार्थ को बारंबार धिक्कारकाट रहा अति पीडित कर मुझको, रक्षकों पर लटक रही तलवारविश्वमाता,मैं कह रही, वृहद् विस्फोटों का त्वरित होगा वार !अहा! व्योम भी डोल रहापुण्य मही भी डोल रही,डोल रही सौम्य प्रकृतिहो कडक अब बोल रही –नभोमण्डल से प्रतिक्षारत,बरसने को हैं अंगारेंजो शांत दीखते अनंत काल से,व्यथित दीप्त हैं तारे,सागर भी कंपित, हो व्यग्र,डूबोने को है किनारे;आपदा को कर रहे आमंत्रित,कुकर्मों से नीच हत्यारे !उदरस्थ,आय के लिए ,शौक से वो काटते,रक्षक वीर हिन्दुओं को नीच कह धिक्कारते !वीरों अवसर नहीं अवशेष,धरा कर दे उपद्रवशुन्यउत्पीडक को सतत् विनष्ट कर,लाता चल यथोचित पुण्य !वीर तूझे वज्र उठाना होगा,सृष्टि बचाने के लिए जाग जाना होगा,यदि नहीं फडक उठी भुजाएँ,नहीं उठी तलवारेंडूब जाएगी महान सभ्यता,विस्मृत होगी वीरों की ललकारें |यदि जहाँ कहीं भी दीख पडे,मेरी आह-पुकारें,उत्पीडक का मस्तक विदीर्ण कर दे तेरी तलवारें |यदि नहीं रूकने को है यह क्रम,विश्व में हमारे नाश काअब अस्त होने को चला सूर्य,विश्व-भाग्य के आकाश काजो तनिक हरियाली रही,दग्ध हो गयी स्वार्थ के खोटों से,स्वर्ण भारतभूमी,अब बंजर,मरघट-मही हुयी विस्फोटों से |अखंड भारत अमर रहे !जय गो माता©कवि पं आलोक पाण्डेय
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Ati sundar aur bhavuk rachnaa Alok. Aapki hindi shabdon par achchi pakad hai.
मधुकर भैया
बहुत मस्त भावों का आप स्मरण करा देते हैं……..
sundar
बहुत धन्यवाद बन्धु ….
Pandey jee aap ne ek sanskriti ko naya roop dene ka bahut achha prayash kiya hai jo sarahniye hai …. bahut sunder
शर्मा जी बहुत बहुत धन्यवाद !
बहुत ही अच्छी रचना……….. लाजवाब…..
बस मुझे बहुत ज्यादा लंबा लगा….
कम शब्दों में होती और भी बढिया होता……..
आपके विचार ठीक ही हैं…..
laajwaab…………par jab tak raajneeti hai….tab tak samaadhaan har cheez ka door hai………..
अवश्य आपने ठीक ही कहा……
बहुत खूबसूरत ……………..राजनीति पर राजधर्म हावी है ………………उसी का परिणाम है !!
बहुत बहुत ………
सधन्यवाद !