अपनों के खारे बस्ती में, मन समंदर सा देखता हूँ,हूँ विस्तृत मैं शून्य में, कोई बवंडर सा देखता हूँ ,मेरे मन की तपिश का भला कोई दवा तो दे दे , इंसानो में इंसानो से, गजब डर सा देखता हूँ ।चंड रश्मियों की चादर में, सूरज मलीन लगता है ज़मीर की मंडी में अब, हर कोई कुलीन लगता हैशासन के तख्त पर बैठा, अट्टहास अब करता हैलहू का प्यासा हर प्यादा शालीन नजर आता हैमर्यादा को चक्रव्यूह में, कटे पर सा देखता हूँइंसानो में इंसानो से, गजब डर सा देखता हूँ ।घने वृक्ष भी अब जूझते हैं, अपनी जड़ों को थाम करअजीब सी हवा है ये, नई पीढ़ियों के नाम पररक्त, स्वेद, छाँव से जो सींच कर दिया हमेंउन बुजुर्गों की नजरों को अब बेरंग देखता हूँ।पीढ़ियों के फासले को, कटु द्वंद सा देखता हूँइंसानो में इंसानो से, गजब डर सा देखता हूँ ।#ऋतुराज
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bahut achha prayash rituraj jee badiya……
Thank You Sir…..
bahud sundar………….
Thank you Sir
Bahut khub………………………..
Thakh u sir