ग़ज़ल(ये रिश्तें काँच से नाजुक)ये रिश्तें काँच से नाजुक जरा सी चोट पर टूटेबिना रिश्तों के क्या जीवन ,रिश्तों को संभालों तुमजिसे देखो बही मुँह पर ,क्यों मीठी बात करता हैसच्चा क्या खरा क्या है जरा इसको खँगालों तुमहर कोई मिला करता बिछड़ने को ही जीबन मेंमिले, जीबन के सफ़र में जो उन्हें अपना बना लो तुमसियासत आज ऐसी है नहीं सुनती है जनता कीअपनी बात कैसे भी उनसे तुम बता लो तुमअगर महफूज़ रहकर के बतन महफूज रखना हैमदन कहे ,अपने नौनिहालों हो बिगड़ने से संभालों तुमप्रस्तुति:मदन मोहन सक्सेना
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sundar ghazal madan ji ……….
bahut sundar……….par gazal nahin kah sakte….pahla misre mein hi radeef na kaafiyaa………
बहुत खूबसूरत भाव मदन जी ………….जैसा की बब्बू जी ने कहा गजल के पैमाने में चूक हुई है !!
आप अन्य रचनाकारों को भी पढ़े और अपने अमूल्य विचार साझा करे तो साहित्य परिवार को ख़ुशी होगी !
बहुत। लाज़वाब