आज सरहद करे बात सरहद से मिल |कुछ गिले कर लिए आज आपस में मिल ||बहा है खून बेटो का दोनों तरफ |कौन किसका करे बात सारी ये मिल ||कुछ इधर घर जले है कभी कुछ उधर |क्या बचा क्या गया सोचे बैठी ये मिल ||इश्क की आज लौ गुम हुई है कहाँ |बम धमाकों में ढूंढे उजाले ये मिल ||रोज गम की उठे लपटे दिल चीरती |लग गले रो रही है तबाही से मिल ||मनिंदर सिंह “मनी”
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Ati sundar Maninder ……….
अति सुन्दर मनी……………..कुछ सुधार की आवश्यकता है जैसे ….प्रथम शेर में कुछ की जगह बहुत रखकर देखे ज्यादा उचित रहेगा … ऐसे ही तीसरे शेर में बैठी शब्द कुछ ठीक नहीं बैठ रहा !
bahut achha hai maninder jee.
मनीजी….मुझे अन्यथा मत लीजै….भाव बहुत सुन्दर हैं….निवतियाजी ने जैसे कहा उसपे अमल कीजिये… और एक बात जो मैं कहना चाहता हूँ… मैं गलत हो सकता हूँ आप मुझे करेक्ट कर सकते कृपया… नज़्म में एक सम्बन्ध है प्रत्येक शब्द…पंक्ति का….ग़ज़ल की तरह से शेर या शब्द प्रयोग कर सकते पर जो नज़्म का अपना मुकाम है उसको चेंज नहीं कर सकते….जैसे तीसरी पंक्ति “है” से शुरू की है….ग़ज़ल में क्यूंकि २ मिसरों में आपने एक भाव पूरा कहना है तो ‘है’ को आप प्रयोग करते हैं वज़न देने के लिया या जोर देने के लिए….नहीं तो ‘है’ शब्द का मतलब किसी शब्द का…पंक्ति का भाव…ख़तम हो जाना या स्थिर हो जाना…. नज़म चूंकि बहती नदिया सी है…तो ‘है’ शुरू में लगाने से बहाव रुकता है नज़्म का अड़चन रहती….आप मेरा आशय समझ गए होंगे….
Bahut sundar….
Bahut sundar ………,