मन —–मनुष्य का मन सही में बहुत ही नटखट होती है अब यहाँ है तो क्या होगा ?पलभर में बहुत दूर जा सकती है। चैत की गर्म धूप लू के जैसी उड़ती रहती है चारों ओर जैसे पगला गयी है। पेड़ की ऊँची डाली पर बैठी उस पंक्षी के जैसी हर्ष के साथ उड़ती रहती इस डाल से उस डाल और नापना चाहती है नीला आसमान। मनुष्य का मन बहुत चंचल होती है और चंचल मन बिन मांझी की नाव जैसी जो सही में बीच समुन्द्र में दुब जाएगी। मन तो चंचल होती है और ये भुलाकर ले जाती है अपनी डगर पर और सत्य की डगर से भटका देती है। पलभर में तुम्हारी तोड़ देगी अट्टालिका असानी से। धन- दौलत भरे राजा से पथ की भिखारी बना देगी। यदि जीवन की डगर मसृन बनाना चाहते हो तो उस पगले मन को गुलाम बनाना होगा। तभी तुम जीवन की एक-एक पग सुनहरी अक्षर से लिख पाओगी। —–चंद्र मोहन किस्कू
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Chandramohan ji sundar rachnaa lekin man, pag ityadi masculine gender hain isliye uchit ling kaa prayog rachnaa ko or sundarta pradaan karegaa.
Sundar rachna…Chandramohan ji…baki mai Shishir ji baat se sahmat hu…
अति सुंदर चंद्रमोहन जी ………… शिशिर जी का सुझाव सही है । मगर मुझे ऐसा लगता है आप की मूल भाषा शायद हिंदी नही है। । लेकिन फिर भी भाषा की बारीकियो पर ध्यान देना आवश्यक है ।
chandramohan ji man ke bare me sundar kavita likha apne…… upar kavigano ne jo kaha sahi hai… man pulling hai.
bahut sundar…..aap hindi bhaashi nahin hote hue bhi….lagaataar prayaasrat hain….slaam aapko…thodi si or koshish aapki gender galtiyaan sudhaar degi….
बहुत ही सुन्दर रचना………………