समाज का आईना
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आज अचानक वर्षो के बाद विद्यार्थी जीवन में पढ़ी तुलसी जी की वो पंक्तिया एक बच्चे ने उस समय फिर याद करा दिया, जब वह उसका अर्थ जानने के मर्म से मेरे पास आया! हालांकि अपने अल्प ज्ञान और तुच्छ समझ के अनुरूप मैंने सकारत्मक उत्तर से तो संतुष्ट कर दिया मगर खुद आज तक मेरी तरह अनेको लोग शंशय में है की आखिर महाकवि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के सुन्दरकांड में उल्लिखित किन भावो के अनुरूप इन शब्दों का चयन कर इन पंक्तियों की रचना की होगी !
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी !!
यह तथ्य विचारणीय है की क्या रामचरित मानस के रूप में समाज को आईना दिखाने वाले महान व्यक्तित्व की विचार धारा उस स्तर की हो सकती जिस पैमाने पर अनभिज्ञ समाज ने अमल में लाने की कोशिश की है आज तक कुछ वर्ग उसी कुटिल मानसिकता का शिकार बनकर समाज के हाशिये पर है !
हालांकि इस बारे में मैंने चेष्टा वश बहुत ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश की जिसका मिलाजुला असर समाज में देखने की मिला , कुछ ने इसे मनोविनोद की तरह लिया , कुछ ने नकारात्मक तो कुछ महान विद्वानों ने सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है ! जैसा की हमे लेना, सोचना और समझना भी चाहिये, क्योकि इसी में हम सब की और समाज की भलाई है !यंहा मेरा मकसद महाकवि जी की सोच या उनके विचारो का विरोध करना नहीं अपितु समाज में चली आ रही मनघढ़ंत बातो और उन का मानव जीवन पर होते असर से है , क्या हम आज की पीढ़ी के समझ इसकी सही व्यख्या करने में समर्थ है, या समाज में चली आ रही परम्परागत विषंगतियो को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ! इस और हम कितने जागरूक और कितने सक्षम है की समाज में फैली विकृतियों में मूलभूत परिवर्तन कर आने वाले पीढ़ी का उचित मार्गदर्शन कर सके !
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कोई भी कवी या रचनाकार अपनी रचना को वक़्त के आईने में देखता है. जब गोस्वामी तुलसीदास जी ने ऐसा लिखा तो समाज की स्थिति ऐसी ही रही होगी. आज का समाज काफी बदल चूका है फिर भी कुछेक क्षेत्रों में आज भी उनके विचार के अनुरून स्थितियां मिल जाती हैं. कोई कोई समाज हजारों वर्षों के बाद भी नहीं बदला. मेरे विचार आपके भावनाओं को किस दिशा में छूते हैं.
बहुत सटीक विचार आपका विजय ..मै पूर्णतय सहमत हूँ…..विगत में कुछ भी रहा हो हमे आज के परिपेक्ष्य में सकारात्मक भावो को महत्त्व देते हुए समय की मांग के अनुरूप समाज में समरूपता का भाव पैदा करने के लिए कार्य करना चाहिए ! आपने अपने विचार साझा किये इसके लिये कोटिश आभार आपका !
कई बार सोचा मैने भी इस विषय पर ।.एक बार यूँ ही बैठे -बैठे चर्चा अपने बेटे के साथ कर बैठी । हर चीज के नकारात्मक पक्ष के साथ सकारात्मक पहलू पर पहुँचते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मूल चौपाई—–
“ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ।
सकल पालना के अधिकारी ।।” रही होगी टंकण अशुद्धि कहीं भी हो सकती है हालांकि इस बात पर मतभेद हो सकता है कि समानता के अधिकार के तहत सभी सक्षम हैं।
बहुत खूबसूरत मीना जी ,आपकी शंका को नकारा नहीं जा सकता, अपितु कारण कुछ भी हो सकते है, उस समय की सामाजिक स्थिति हो या अन्य कोई कारण वरन आज के समय के के ध्यान में रखते हुए अपनी सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना और समाज में समानता के भावो को फलीभूत करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होना चाहिए !
आपने अपना स्वतत्र पक्ष रखा यह अपने आप में एक अच्छे लेखक या कवि की विशेषता की मजबूत पहलु होता है , आपके विचारो का ह्रदय से सम्मान करता हूँ !!
Taadnaa kaa ke arth khayal rakhnaa bhi hotaa hai. Or agar us drasti se dekhaa jaae to isme Kuch bhi galat nahi hai. Samaantaa ke aadhaar par sabhi ke saksham hone ke Meena Ji ke vichaar se main sahmat nahin hun. Kyonki samaantaa ko totality me dekhnaa hoga. Kuch sthaano par stri purush se jyada balvaan hai v dosre sthanon par purush. Jahan jo kamzor hai use taadnaa arthaat dekhbhaal ki aawashyaktaa hai. Fir Tulsidaas ji ki is line me unke purush hone ke kaaran ‘male chauvinism” hone swabhavik hai. Vijay ki baat fir bhi jyada tark sangat lagi mujhe.
हुत बहुत धन्यवाद शिशिर जी, सत्य कहा आपने एक शब्द के अनेक अर्थ हो सकते है, अपितु समस्या तब उत्पन्न हो जाती है जब सामाज के ही धर्म रक्षक एक शब्द के एक अर्थ को ही को समय और वस्तुस्थिति के अनुरूप मौक़ा जानकर उसका प्रयोग करते है, जबकि एक संदर्भ में एक ही अर्थ होना चाहिए भले ही वो सकरात्मक हो या नाकारात्मक, जंहा तक क्षमता का सवाल है वो तो किसी में भी सम नहीं हो सकता उसका सामाजिक असमानता से कोई ताल्लुक नहीं बनता चाहे वो स्त्री पुरुष में हो या अन्य में ! सामाजिक समानता का तातपर्य आपसी प्रेम, सद्भाव और एकता से होना चाहिए !
हमारा उद्देश्य तुलसी जी की पंक्तियों पर प्रश्न चिन्ह करना नहीं क्योकि वो ज्ञान के था सागर है जिसकी एक एक बूँद को हम तरसते है ! अपितु हमारा मंतव्य उस विसंगति से है जिसका शिकार समाज सदियों से है ! शिक्षा की बुलंदियों तक पहुंचने के पश्चात भी हम उस सकारात्मक सोच को पटल पर ला सकने में अक्षम है !
आपके अमूल्य विचार हम सब के लिए अत्यंत उपयोगी है आपका ह्रदय ताल से आभार और बहुत बहुत धन्यवाद आपका !!
शिशिर जी , मेरा मत आज के युग के तहत समानता के अधिकार से है । त्रेतायुग या तुलसी दास जी के समय से नही । मुझे बात स्पष्ट करते यह तथ्य भी रखना चाहिए था ध्यान दिलाने के लिए आभार आप का।
बहुत बहुत धन्यवाद मीना जी आपका तह दिल से शुक्रिया !!
तुलसीदासजी की काव्यात्मक शैली ऐसी है कि उसपे हम शक नहीं कर सकते….न ही उनके विचार ऐसे होंगे चाहे समाज की प्रस्थिति उस समय कैसे भी हो….’अधिकार’ शब्द का जो व्यवहारिक अर्थ है वो अधिकार होने से होता है…..और जिस ढंग से अधिकार को प्रयोग किया है उसका मतलब निकलता है इन सब को ‘औरों’ को ताड़ने का अधिकार प्राप्त है न की ‘औरों’ को इनको ताड़ने का…ये समानता का द्योतक भी है….मधुकरजी ने सही कहा है कि ताड़ने के अलग अलग मतलब हैं….और समय के साथ कई कुरित्यों का समावेश हो जाता है…और अपने अपना मतलब निकल के प्रिंट कर देते हैं….जो टीकाकार हैं या अपने मत देते हैं उनको समाज पे पड़ने वाले असर का ज्ञान होना चाहये…वो साहित्यक ही होने चाहये…हर कोई अपना मतलब निकल के प्रिंट कर दे ऐसी इजाज़त नहीं होनी चाहये…ये समाज और ऐसी संस्थाएं जो साहित्य से जुडी हैं कर्त्तव्य है की साहित्य से ऐसी बातों को हटाया जाए या उनका सही मतलब दिया जाए….मुझे याद आ रहा कहीं पढ़ा था की गीता प्रेस गोरखपुर वाले ये कोशिश कर रहे हैं…और ये मैंने खुद महसूस किया है “दुर्गासप्तशती” जो मैंने पहले ली थी किसी और पब्लिशर की और गीता प्रेस गोरखपुर की जब ली तो मतलब अलग हैं…स्पष्ट किया है कई जगह पे कई शब्दों को मतों को गीता प्रेस गोरखपुर वालों ने…….और आप इस को खुद देख सकती कि ‘अर्गला स्तोत्र’ ही अलग अलग किताबों में अलग अलग है… ऐसे ही वो पुराणों में अनर्गल बातें जो हैं उनको स्पष्ट करने के या बदलने कि बात भी कही जा रही थी…. एक और बात जो बहुत काम लोग जानते हैं….वो है आरती जो हम करते हैं रोज़ सुबह शाम….’जय जगदीश हरे’….आरती का अंतिम पद ‘विषय विकार मिटाओ है’ लेकिन सब जगह जो गाई जाती है…उसके बाद २-३ पद और सम्मिलित हैं…तन मन धन अर्पण का…कहत शिवानंद सवामी हरी हर स्वामी…पता नहीं क्या क्या सम्मिलित है…जो कि गलत है….पर कोई नहीं बोलता…ये आरती ‘फिल्लौर पंजाब ‘ में रहने वाले श्री श्रद्धा ‘फिल्लौरी’ जी हैं….हस्त लिखित उनकी ये आरती उनके घर में ‘फ्रेम’ में लटकी है….और इसको शिवानंद स्वामीजी अक्सर गाते थे… पर समय के साथ हम ‘श्रद्धाजी’ कि आरती में और समावेश हो गया…नामों का पदों का…और ये आरती भी सबसे पहले गीता प्रेस गोरखपुर वालों ने पब्लिश कि थी और उन्होंने सिर्फ वास्तिवक जो आरती उसी को पब्लिश किया था…. ऐसी संस्थाएं और ऐसे ही दिमाग वालों कि ज़रुरत है अगर हमने समाज से साहित्यक भ्रांतियों को निकालना है…. जय हो….
पूर्णरूपेण सत्य वचन आपके कदापि हम ऐसा नहीं कर सकते मेरे ह्रदय पटल पर सदैव आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के शब्दों छपे रहते है जिनमे उन्होंने कहा था
सूर सूर, तुलसी शशि, उडुगन केशवदास !
अब के कवि खद्धोत सम, जहं तहं करत प्रकाश !!
मेरा आपसे अनुरोध है की आप एक बार पूण : लेख का अवलोकन करे तो आप पाएंगे की मैंने कहीं भी ऐसा अपराध करने की कोशिश नहीं की जिसमे तुलसी जी की छवि को इशारा करती हो ! मेरा मत इस विषय पर मात्र आप लोगो के विचार जानना था की जिस तरह से शब्दों की अलग अलग रूप में व्यख्या कर समाज में आज तक भ्रान्ति का माहौल पैदा किया गया और सुशिक्षा के बावजूद विसंगतियों को बढ़ावा मिलता रहा है ! क्या हमे उसके अनुरूप सकारात्मक सोच को बढ़ाव देकर सही दिशा के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए या नहीं !
आपने अपना कीमती समय देकर जो अमूल जानकारी साझा की है उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है किन शब्दों में आपका धन्यवाद कहूं ! हमेषा की तरह बस यही कहना चाहता हूँ की मै कायल हूँ आपके साहित्य ज्ञान और प्रेम का, अहो भाग्य हमारा जो आप जैसे वयक्तित्वो का सानिध्य प्राप्त हुआ ! पूण धन्यवाद आपका !
सर आप बिलकुल सही कहते हैं….आप के लेख में ऐसा कुछ नहीं जो तुलसीजी के बारे कुछ गलत लिखा हो…न ही मेरा भाव ये था कहने का कि आप ने कुछ ऐसा लिखा है…. हाँ मैं ही स्पष्ट नहीं कर पाया अपने भावों को…आपके ह्रदय को ठेस पहुंचाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ….
आप ऐसा कहकर शर्मिंदा न करे बब्बू जी ………..मेरा मंतव्य वो नहीं जो आप समझने का प्रयास कर रहे है ……..आप की विचारो से हमे बहुत ऊर्जा मिलती है अपनी नजरे इनायत रखियेगा…………!!
सब की सोच अपनी अलग अलग है आपकी , मेरी और हमारे आदरणीय कवि राजो की कोई कही सही है तो ये जरुरी नही कि वो हर जगह सही है यही शायद तुलसीदास की सोच मे भी कही कही अंतर हो सकता है जरुरी है हम सच और अच्छी सोच के साथ चले और किसी भी बुरी सोच को भुला दे आगे बड़ चले 1 किसी भी गलती के लिये निवितिया साहब माफ़ी चाहता हू1
बहुत बहुत धन्यवाद राजीव आपका ………..आपके विचार उत्तम है … यक़ीनन विचारो में असमानता स्वाभाविक है यंहा मै आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ की, दरअसल विषय ने अनुरूप मुद्दा तुलसी जी नहीं थे अपितु , प्रश्न समाज में फैली उस कुटिल मानसिकता का था जिसका प्रभाव हर क्षण जीवन में देखने को मिलता है ……….हमारा विषय यही है की हम समाज में चली आ रही गलत परम्पराओं और मान्यताओ को सकारात्मक पहलु के साथ उचित अनुचित क का बोध करते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करे और नव पीढ़ी को एक अच्छा वातावरण देने की कोशिश करे !
मेरे ख्याल से उनका कहना था कि जो पुरुष इन पांच जैसा व्यवहार करता हो वो ताड़न का अधिकारी है। याने जो ढोल की तरह अंदर से खाली हो, बुद्धि शून्य हो, नीच कर्मवाला हो, जानवरों की तरह व्यवहार करता हो और पुरुष याने आदमी का सा व्यवहार न करता हो। यह सुन्दरकांड़ में आया है और यहां बात मर्यादा याने जीवों के स्वभाव की की जा रही है। पुरुष ने पुरुष का सा स्वभाव रखना चाहिये न कि नारी जैसे।
अब जैसा लोग समझें!
आपने अमूल्य विचारो से हमे अनुग्रहित किया यह हमारे लिए बहुत ही हर्ष का विषय है भूपेंद्र द्वे जी … उस समय के अनुरूप अर्थ या व्याख्या कुछ भी रही हो …विषय यह है की आज के परिपेक्ष्य में हम कैसे देखते है … कई बार देखने में आता है की जब बात तुलसी जी की आती है तो व्याख्या सकारात्मक कर दी जाती है .. और जब बात जान मानस की जाती है तो हीनता के भाव दर्शाते हुए उदहारण स्वरूप ये पंक्तिया पेश की जाती है !
इस असामनता के कारण ही आज तक हम सामाजिक विषमताओं की और कुछ ख़ास नहीं कर पाये है………..बहुत बहुत धन्यवाद आपका !
मैं यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि कोई कवि किसी चीज को किस सन्दर्भ में लिखता है, और तदनन्तर उसकी व्याख्या क्या होती है, यह कालखण्ड और प्रकृति के अनुरूप में हो सकती है, पर अगर तुलसीदास के सम्पूर्ण रामचरितमानस का अध्ययन किया जाए तो हम यहीं पाते है कि उस समय की कुरूतियो से आने को अलग नही कर पाए। जहाँ एक ओर कबीर ने सामाजिक कुरूतियो पर गहरा आघात किया, जाति पाती से परे होकर एक समतामूलक समाज के लिए अपनी साहित्य साधना की, तो वही तुलसीदास भारतीय समाज मे फैली वर्ण व्यवस्था से अलग नही हो पाए। उनकी रचनाओं में वर्ण व्यवस्था के खिलाफत जैसी कोई चीज निकल कर नही आती।
उदाहरण स्वरूप यहाँ कुछ बाते रखना चाहूँगा
1—अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथाअहि दूध पिलाए।
अर्थात जिस प्रकार से सांप को दूध पिलाने से वह और विषैला (जहरीला) हो जाता है, वैसे ही शूद्रों (नीच जाति वालों) को शिक्षा देने से वे और खतरनाक हो जाते हैं।
देखें : पेज 986, दोहा 99 (3), उ. का.
2–जे वर्णाधम तेली कुम्हारा, स्वपच किरात कौल कलवारा।
अर्थात तेली, कुम्हार, सफाई कर्मचारी,आदिवासी, कौल, कलवार आदि अत्यंत नीच वर्ण के लोग हैं।
देखें : पेज 1029, दोहा 129 छंद (1), उत्तर कांड
3–अभीर (अहीर) यवन किरात खलस्वपचादि अति अधरूप जे।अर्थात अहीर (यादव), यवन (बाहर से आये हुए लोग जैसे इसाई और मुसलमान आदि)
देखें: पेज 338, दोहा 12(2)अयोध्या कांड।
4–कपटी कायर कुमति कुजाती, लोक, वेदबाहर सब भांति।तुलसी ने रामायण में मंथरा नामक दासी(आया) को नीच जाति वाली कहकरअपमानित किया
देखें : पेज 338, दोहा 12(2) अ. का.
5–लोक वेद सबही विधि नीचा, जासु छांटछुई लेईह सींचा। केवट (निषाद, मल्लाह) समाज, वेद शास्त्र दोनों से नीच है, अगर उसकी छाया भी छू जाए तो नहाना चाहिए।
पेज 498 दोहा 195 (1), अ.का.
6–करई विचार कुबुद्धि कुजाती, होहिअकाज कवन विधि राती।अर्थात वह दुर्बुद्धि नीच जाति वाली विचार करने लगी है कि किस प्रकार रात ही रात में यह काम बिगड़ जाए।
7–काने, खोरे, कुबड़ें, कुटिल, कूचाली, कुमतिजानतिय विशेष पुनि चेरी कहि, भरतु मातुमुस्कान।भारत की माता कैकई से तुलसी ने physicallyऔर mentally challenged लोगों के साथ-साथ स्त्री और खासकर नौकरानी को नीच और धोखेबाज कहलवाया है,‘कानों, लंगड़ों, और कुबड़ों को नीच और धोखेबाज जानना चाहिए, उन में स्त्री और खास कर नौकरानी को… इतना कह कर भरत की माता मुस्कराने लगी
देखें : पेज 339,दोहा 14, अ. का.
8–तुलसी ने निषाद के मुंह से उसकी जाति को चोर, पापी, नीच कहलवाया है। हम जड़ जीव, जीव धन खाती, कुटिल कुचली कुमति कुजाती यह हमार अति बाद सेवकाई, लेही न बासन,बासन चोराई।अर्थात हमारी तो यही बड़ी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते (यानि हम तथा हमारी पूरी जाति चोर है, हम लोग जड़ जीव हैं, जीवों की हिंसा करने वाले हैं)।
इसलिए तुलसीदास का मूल्यांकन इस आधार पर किया जा की से बड़े कवि थे,पर जब उनकी काव्य सृजनता को देखते है तो पाते है कि तुलसीदास घोर जातिवादी व्यवस्था के पोषक थे।
आपकी विस्तृत विवेचनात्मक प्रतिक्रिया का तह दिल से स्वागत है…. आपके द्वारा दिए गए तथ्य बहुत ही महत्वपूर्ण और विचारणीय है ………यक़ीनन यह आपके जिज्ञासु शिक्षण और ज्ञान का सटीक प्रमाण है ………….. किसी भी धारणा या शंका से किनारा नहीं किया जा सकता है! यह मेरा सौभाग्य है की इस विषय के माध्यम से आप जैसे गुनीजनो के द्वारा बहुत कुछ जानने और समझने को मिला !
यंहा एक बात निकलकर अवश्य आती है की एक सिक्के के दो पहलु की तरह समाज या सृष्टि में हर विषय के दो पहलु रहे है ! यंहा भी ठीक वैसा ही मिलता है, अपितु महत्वपूर्ण यह है की एक पक्ष शोशण करने वाला रहा और दुसरा शोषित, इसी कारण से दोनों पक्षों के विचार अभिव्यक्ति में असमानता पाई जाती रही है !
जैसा की मैंने पहले भी कहा है की ऐसा कई बार देखने में आता है की जब बात तुलसी जी की आती है तो व्याख्या सकारात्मक कर दी जाती है .. और जब बात जन मानस की जाती है तो हीनता के भाव दर्शाते हुए उदहारण स्वरूप ये पंक्तिया पेश की जाती है !
महत्वपूर्ण यह है की पूर्व में कुछ भी रहा हो गलत या सही मगर वर्तमान की आवश्यकता क्या है, आज के अनुरूप मूलभूत तथ्यों के तहत उचित विकृत सोच को मिटाकर साकरात्मक भाव कैसे पैदा किये जाए क्या जो पक्ष इन पंक्तियो का समर्थन कर साकारात्मक भाव की बात करता है क्या वो उसी रूप में उसको ह्रदय से स्वीकार करने को तैयार है …जहा तक मुझे लगता है ऐसा बहुत काम देखने को मिलता है ! यदि इस असमानता को दूर किया जा सके तो माना जा सकता है की विरोधी पक्ष की व्यख्या गलत है, वरना उन्हें गलत नहीं माना जा सकता !
आपने अपने अमूल्य विचारो से हमे अनुग्रहित करने के लिए कोटिश आभार आपका !!
अगर किसी की भावना दुखी हो तो विनम्र भाव से माफी, पर आलोचनात्मक रूप से महाकवि तुलसीदास की मैं बहुत आदर करता हूँ, और यह मानता हूँ कि उनके जैसा कवि कभी कभी ही धरा पर अवतरित होता है, तथापि उनके लिखे कई चीजों से हम पूर्णरूपेण सहमत नही है।सादर
सत्य कहा आपने आप और हम ही नहीं समूर्ण जगत ऐसे महान आत्मा का ऋणी है ! ये हमारा सौभाग्य है की हमे ऐसी धरा के अंश होने का सौभाग्य प्राप्त है !
विचारो की समानता या असमानता से किसी का विरोधी होना सिद्ध नहीं होता है ! आपके विचार अमूल्य है भविष्य में भी आपके नजरे इनायत के लिए प्रतीक्षारत !!
मेरा मत है कि कोई कवि अपनी रचना अपने समय बीती सामाजिक दशा को अपनी काव्य रचना में स्थान देता है,वक्त के साथ बहुत बातें रीति- या जगत ही कहें परिवर्तनशील होता है, महान कवियों की कुछ बाते आज के परिवर्तनशील समाज में अतर्क संगत इसलिय लगती है शायद इस वाक्य के अर्थ तक नहीं पहुंच पाते हैं या फ़िर समय के साथ कुछ बातें परिवर्तन स्वरुप कुछ और प्रतित होती है जिससे हमें कवि भूल मनाने के बजाय सगुण बातें पर ध्यान देना चाहिय , मेरा मत है हर महान कवि की आलोचना हो सकती है, पर हम क्या सक्षम है आलोचना करने को ये भी अहम मुद्दा है,
*मेरा अपना व्यक्तिगत विचार कुछ गलत हो माफ़ करे*
आपने सही कहा दुष्यंत ……….. यक़ीनन हम सब का भी यही ध्येय है …. हमारा मकसद यंहा आलोचना या विरोध नहीं अपितु , सकारात्मक सोच को बढ़ावा देना और सामाजिक विकृतियों में समयनुसार अमूल चूक परिवर्तनों के साथ नव पीढ़ी के सृजन में योगदान करना है … धन्यवाद आपका !!
मेरा मत है जाति वाद धर्मवाद इंसान का बनाया है, हम फ़िर इंसान में फर्क क्यों करते है, अगर हम इंसान ही बने रहें तो समाज में खुशीहाली आयेगा, कोई धर्म या सभ्यता हमें जींने का सलिका सिखाती है ना की कुछ और, इंसान को आडम्बर वाद.को दूर करना होगा, फ़िर भी कुछ ना करेंगे तो जो होगा सो होगा इंसान नही समय तय करेगा ,
शत प्रतिशत विषय अनुरूप तर्कसंगत बात कहीं आपने …………..इसके लिए आप बधाई के पात्र है धन्यवाद आपका !
उपरोक्त विषय पर विभिन्न बुद्धिजीवियों ने समय समय पर अपने विचार प्रकट किये है | जिससे हमें उस समय के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश की जानकारी प्राप्त होती है | प्रस्तुत दोहे पर मैं अपने विचार रखूं उससे पहले मैं यह कहना अति आवश्यक समझता हूँ कि हम चाहे जितने भी तर्क वितर्क करके तुलसी जी को उचित या अनुचित ठहरा लेने का प्रयास कर लें किन्तु सत्य सिर्फ तुलसी का ह्रदय ही जानता है|
मैं अपना कोई व्यक्तिगत विचार नही दूंगा अपितु कुछ बिन्दुओं को आपके विचार हेतु अवश्य प्रस्तुत करना चाहूँगा जिससे हमारी सोच को एक नया आयाम मिलेगा |
1 हो सकता है की वर्त्तमान रामचरित मानस में वर्तनी की अशुद्धियों के कारण ये प्रश्न उठ रहा हो की तुलसी जी नारी और दलित विरोधी थे |
२ हो सकता है की उस समय के समाज में इन शब्दों के अन्य अर्थ भी प्रचलित रहे हो जो की आज शब्दकोशों और प्रयोगों से बाहर हो गये हो | क्योंकि कवि और लेखक हमेशा से ही शब्द शक्तियों और आलंकारिक भाषा का प्रयोग करते रहे है |
3 हो सकता है की गोस्वामी जी कट्टर ब्राह्मण रहे हो और परंपरागत भारतीय समाज के लिहाज से नारी को दोयम और शूद्र को अस्पृश्य मानते हों |
अब मैं अपने इन्ही बिन्दुओं पर अपनी राय देना चाहूँगा –
1 अगर प्रिंटिंग की अशुद्धियों के परिप्रेक्ष्य में खा जाय तो कई बार ऐसा भी होता है उपलब्ध मूल प्रतिलिपि या पांडुलिपि इतनी पुरानी या अपठित होती है की टीकाकार स्वविवेक से अर्थ लगाता है और जो अर्थ सटीक लगता है उसी के आधार पर व्याख्या करने लगता है | जबकि उसका वास्तविक शब्द या भाव से कोई सम्बन्ध नही होता |
२ अब अगर ये मान लिया जाय की गोस्वामी जी कट्टर ब्राह्मण थे और नारी विरोधी थे तो इस बात को सिरे से नकारा जा सकता है | क्योंकि जिस प्रकार उन्होंने शबरी , निषाद , अहिल्या , तारा , मंदोदरी जैसे विभिन्न नारी पात्रों को अपनी इस कालजयी रचना में चित्रित किया है उससे तो ये मानना कठिन है की उनकी दृष्टि में नारी और शुद्र तुच्छ एवं त्याज्य थे |
किसी भी मनुष्य के विचार सामान्यतया उस समय के सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से ही प्रभावित होते हैं| आज भी ऐसे अनेक लेखक और कवि है जिन्हें समाज का एक वर्ग बुद्धिजीवी तो दूसरा वर्ग देश और समाज विरोधी साबित कर देता है | सत्य सिर्फ वो व्यक्ति ही जानता है |
अगर शाश्वत सत्यों को छोड़ दे तो ये तो आप भी मानेगे कि समाज का सत्य देश , काल , परिस्थितियों पर निर्भर करता है | जो तुलसी काल में सामजिक गर्व था वो आज पिछड़ापन हो सकता है | जो आज आधुनिकता है वो मध्यकाल में अश्लीलता मानी जाति थी |
अंततः मैं सिर्फ यही कहूँगा कि अपनी विभिन्न कालजयी कृतियों में तुलसी जी ने जो सोच और कल्पनाशीलता की उचाईयां छुई है वो हमें यह तो नही मानने देगा की तुलसी के उक्त पद के वही अर्थ है जो हम कहते और सुनते हैं |
बहुत बहुत शुशील आपका …………हर्ष का विषय है की विवेचनात्मक रूप से आपने अपने विवेकनुसार दोनों पहलुओं पर प्रकाश डाला जो अति महत्वपूर्ण है ……….लेख का विषय तुलसी जी की आलोचना करना नहीं वरन उनके नाम पर समाज में अपने निजी स्वार्थ के लिए फैलाई गयी विसंगतियों से है जिनके द्वारा जान मानस को भर्मित किया गया और वर्तमान तक उसी दासता का प्रभाव निरनतर चला आ रहा है … लेख का सार यह है की क्या आज समाज में शिक्षा और जागरूकता के बढ़ते कदमो के अनुरूप समय और परिस्थितयो की मांग को पूरा कर सके !
आपने अमूल्य विचारो के इस संबंध में साझा किया उसके लिए तहदिल से शुक्रिया और आशा करते है की सभी का निर्णायक भाव यही है जो की होना भी चाहिए की विचारो की असामानता को त्याग कर सकारात्मक भाव के साथ वर्तमान परिपेक्ष्य के ध्यान में रखकर आगे बढ़ा जाए !!
जो चीज़ जिसके लिए बनाई गई है उसे वही करने दें……उससे छेड़छाड़ करके हम उसकी प्रकृत को नष्ट कर रहे हैं…….
तुलसीदास जी भी इन्सान ही थे , वो भी समाज में रहते थे…उन्होने भी समाज के रीति रिवाज़ को निभाया है इसका उदाहरण आपको कई जगह मिल जाएगा
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ,
सकल ताडना के अधिकारी
इस कथन के कई पहलू हों सकते हैं
लेकिन मैंने भी इसके बारे में कई लोगों से जानने की पहले भी कोशिश कर चुका हूँ
कुछ लोगों का मानना है की इस चौपाई को समझने के लिए इसके पहले की 10 चौपाई के प्रसंग जानने की ज़रूरत है
वैसे
ढोल को जितना करोगे उतनी ही मधुर ध्वनि मिलेगी
गंवार पे अगर बंदिश नहीँ रखी गई तो समाज में आतंक फैलाएगा
शूद्र को अगर खाने को आसानी से मिला तो वह काम नहीँ करेगा
पशु पे लगाम नहीँ डाली गई तो उसे बस में करना सम्भव नहीँ होगा
नारी……..
नारी अगर लोक लाज खो दे तो उसका मुकाबला करना किसी के लिए भी आसान नहीँ होगा
सही है।
Thanks …!
आपका कथन यह कथन सरहानीय भी है और प्रशंशनीय भी की
जो चीज़ जिसके लिए बनाई गई है उसे वही करने दें……उससे छेड़छाड़ करके हम उसकी प्रकृत को नष्ट कर रहे हैं…….
तुलसीदास जी भी इन्सान ही थे , वो भी समाज में रहते थे…उन्होने भी समाज के रीति रिवाज़ को निभाया है !!
यक़ीनन इसके कोई दो राय नहीं होनी चाहिये…………..जंहा तक प्रश्न उठता है तुलसी जी के कथन का तो विद्वानों के अनुसार जो द्विअर्थय परम्परा का निर्वाह किया गया वही मूल कारण है,,,,,,,, ! साधारण रूप में हम यदि हम सिर्फ एक शब्द ताड़न का अर्थ निकाले तो यक़ीनन देखने से होता है, अपितु यंहा महत्वपूर्ण बात यह है की इस देखने का तात्पर्य किस संदर्भ में लिया जाता है, ताड़न या ताड़ने का अभिप्राय कहीं भी सामान्य रूप में देखने को नहीं मिलता जब भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता है तो विशेष रूप से नाकारात्मक या अशोभनीय रूप में देखने के लिए प्रयोग किया जाता है ! उसी प्रकार अन्य शब्दों का भी अर्थ निकाले तो अलग अलग स्वरूप में भिन्न भाव मिलते है !
यंहा एक प्रश्न यह भी उठता है की यदि विद्वानों के अतानुसार यह पद इतना सार्थक और सही सोच को प्रदर्शित करने वाला है तो कहीं भी सामान्य रूप में पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बन सका ! क्यों इसको बताने, समझाने या पढ़ने पढ़ाने के चलन से दूर रखकर उपेक्षित लोगो के लिए एक अस्त्र के रूप में प्रयोग लाया जाता रहा है !
परन्तु हमारा विषय यह कदापि नहीं है की तुलसी जी का अभिप्राय क्या था वो उस समय और कल पर निर्भर था जो आज नहीं है ! आज आवश्यकता है उसको सही रूप में प्रस्तुत कर भावी पीढ़ी को विरासत में देने की !
अत: यह हम सब का मंतव्य और अभिप्राय एक ही है जो लेख में भी स्पष्ट है की विगत में कुछ भी रहा हो हमे आज के परिपेक्ष्य में सकारात्मक भावो को महत्त्व देते हुए समय की मांग के अनुरूप समाज में समरूपता का भाव पैदा करने के लिए कार्य करना चाहिए !
आपने अपने विचार साझा किये इसके लिये ह्रदय ताल से आभार आपका… आपके इस अनवरत सानिध्य का सर्वदा अभिलाषी !!
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी!!
इस पर सभी का अपना-अपना-अपना मत हैं। हर रचना का उस समय के परिवेष, सामाजिक संरचना और रीति-रिवाज से हि समझ सकते हैं। जब गोस्वामी तुलसी दास जी ने ऐसा लिखा तो समाज की स्थिति ऐसी ही रही होगी ।
यहाँ ताड़ना को समझने की आवश्यकता है। ताड़ना है या वहाँ कुछ और है। ताड़ना है तो उसका अर्थ या भावार्थ क्या है । अगर ताड़न के अधिकारी है तो वो अधिकार किसे है । क्या ढोल सभी बजा सकते हैं ? जवाब है नहीं, तो उसी प्रकार अन्य के लिए भी ऐसा ही है।
कुछ लोग आज समानता पर जोड़ बहुत ही ज्यादा देते हैं। अगर उनसे चर्चा किया जाय तो वे खुद ही सिद्ध हो जाएंगे की उनके कथनी और करनी में बहुत अंतर है। एक स्थान पर वे समानता का समर्थन करते हैं तो वही दूसरे स्थान पर घोर विरोध करते हैं । यहाँ तक की प्रकृति भी इसे समर्थन नहीं करती। आप देख सकते हैं की माता – पिता भी हर समय सभी बच्चों के लिए समान भाव नहीं रखते ।
कवि का भाव में कुछ भी गलत नहीं है सब अपने-अपने सोच समझ पर है जो कुछ को कुछ सिद्ध करने तुले हैं या तुले रहते हैं।
तुलसी दास जी भी इनसान ही थे , वो भी समाज में रहते थे…उन्होंने भी समाज के रीति रिवाज को निभाया है । इसका उदाहरण आपको कई जगह मिल जाएगा ।
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ,
सकल ताडना के अधिकारी!!
इस कथन के कई पहलू हों सकते हैं । लेकिन मैं ने भी इसके बारे में कई लोगों से जानने की पहले भी कोशिश कर चुका हूँ ।
कुछ लोगों का मानना है की इस चौपाई को समझने के लिए इसके पहले की 10 चौपाई के प्रसंग जानने की ज़रूरत है ।
वैसे
ढोल को सही कसने पर ही मधुर ध्वनि मिलेगी, गंवार पर अगर बंदिश नहीं रखी गई तो समाज में आतंक फैलाएगा । शूद्र को अगर खाने को आसानी से मिला तो वह काम नहीं करेगा पशु पर लगाम नहीं डाली गई तो उसे बस में करना सम्भव नहीं होगा।
नारी……..नारी अगर लोक लाज खो दे तो उसका मुकाबला करना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा।
बहतु बहुत धन्यवाद नरेंद्र जी …. आपके विचार पूर्णतय अनुज जी के विचारो के प्रति छाया लगाती है …. आपने जो भाव रखे उनका ह्रदय से आभार !!
यक़ीनन इसके कोई दो राय नहीं होनी चाहिये…………..जंहा तक प्रश्न उठता है तुलसी जी के कथन का तो विद्वानों के अनुसार जो द्विअर्थय परम्परा का निर्वाह किया गया वही मूल कारण है,,,,,,,, ! साधारण रूप में हम यदि हम सिर्फ एक शब्द ताड़न का अर्थ निकाले तो यक़ीनन देखने से होता है, अपितु यंहा महत्वपूर्ण बात यह है की इस देखने का तात्पर्य किस संदर्भ में लिया जाता है, ताड़न या ताड़ने का अभिप्राय कहीं भी सामान्य रूप में देखने को नहीं मिलता जब भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता है तो विशेष रूप से नाकारात्मक या अशोभनीय रूप में देखने के लिए प्रयोग किया जाता है ! उसी प्रकार अन्य शब्दों का भी अर्थ निकाले तो अलग अलग स्वरूप में भिन्न भाव मिलते है !
यंहा एक प्रश्न यह भी उठता है की यदि विद्वानों के अतानुसार यह पद इतना सार्थक और सही सोच को प्रदर्शित करने वाला है तो कहीं भी सामान्य रूप में पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बन सका ! क्यों इसको बताने, समझाने या पढ़ने पढ़ाने के चलन से दूर रखकर उपेक्षित लोगो के लिए एक अस्त्र के रूप में प्रयोग लाया जाता रहा है !
परन्तु हमारा विषय यह कदापि नहीं है की तुलसी जी का अभिप्राय क्या था वो उस समय और कल पर निर्भर था जो आज नहीं है ! आज आवश्यकता है उसको सही रूप में प्रस्तुत कर भावी पीढ़ी को विरासत में देने की !
अत: यह हम सब का मंतव्य और अभिप्राय एक ही है जो लेख में भी स्पष्ट है की विगत में कुछ भी रहा हो हमे आज के परिपेक्ष्य में सकारात्मक भावो को महत्त्व देते हुए समय की मांग के अनुरूप समाज में समरूपता का भाव पैदा करने के लिए कार्य करना चाहिए !
आपने अपने विचार साझा किये इसके लिये ह्रदय तल से आभार आपका…!!
AAJ KE SAMAJ KO EK DISHA MEIN BANDHNE KE LIYE BAHUT ACHHA PRAYAS. BAHUT SUNDER…..
Thank u very Much Bindu ji ………!!
बहुत ही अच्छी विवेचना पढने को मिली………….बहुत बहुत धन्यवाद ति
Thank U very Much Savianka ….!
पहले तो धन्यवाद निवातिया जी इतना बढ़िया विषय सभी के समक्ष रखने के लिए………ऐसे विषयो की बहुत जरूरत है….
मेरी छोटी सी समझ के हिसाब से अपने विचार आप के समक्ष रख रहा हूँ मैंने काफी सारी जानकारी नेट पर सर्च कर के जुटाई है मैंने रामायण कभी नहीं पढ़ी पर इन् पंक्तियों को और नेट पर पढ़ा और जो मुझे ठीक लगता है वो आप के समक्ष रख रहा हूँ |
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी !!
इस चौपाई के बारे में हर किसी की अपनी सोच के हिसाब से इसकी व्याख्या है जो हो सकता है कुछ लोगो ने अपने स्वार्थ के कारण तोड़ मरोड के पेश किया हो | जब तुलसी दास जी ने इस चौपाई को लिखा उस वक्त क्या माहौल था उस पर निर्भर करता है | कुछ लोगो का मानना है की तुलसी जी स्त्रियो के खिलाफ थे गर थे तो…
रामचरित मानस में उन्होने स्त्री को देवी समान क्यो बताया…?????
और तो और…. तुलसीदास जी ने तो …
“एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“
अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर……… दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है।
साथ ही …..सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण….उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण……. यहाँ तक कि…. लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही है ….!
सिर्फ इतना ही नहीं….. सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना…….. कैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं….. जब, उन्हे अपनी ग़लती का पश्चाताप होता है ।
ऐसे में तुलसीदास जी के शब्द का अर्थ……… स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है……..आसानी से हजम नहीं होता…..!
शुद्रो के बारे में वो कैसे गलत लिख सकते है क्यों की उन्होंने शबरी, केवट, विषाद के राम जी से मिलने का बहुत सुन्दर चित्रण किया है | राजा दशरथ ने स्त्री के वचनो के कारण ही तो अपने प्राण दे दिये….
और श्री राम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया ….
साथ ही ….रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा…. पूरी रामायण मे स्त्रियो का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया ..!
जो भी मैंने पढ़ा उसके हिसाब से मुझे नहीं लगता की तुसली दास जी कुछ गलत लिखा हो सकता है | आज हर आदमी अपने स्वार्थ के खातिर कहीं भी कुछ भी कह देता है हम उससे सच मान लेते है शायद हमें कुछ अपना स्वार्थ दिखता है या हम डर से चुप रह जाते है….यह हर धर्म में है |
उस समय भी ऐसा ही कुछ था जो लोग उनके विरुद्ध थे उन्होंने उनकी लिखी रचनाओं को तोड़ मरोड कर पेश किया जिस कारण काफी कुछ उलझ गया |
हिंदी में ताड़ना बहु अर्थी शब्द है जिसके बोलचाल में उपयोग होते हैं:- साधना, तानना, नजर जमाना, निशाना लगाना, नियंत्रित रखना इत्यादि.
वैसे ताड़ना शब्द एक अवधी शब्द है जिसका मतलब होता है——समझना और राम चरितमानस भी अवधी भाषा में लिखी हुई है इस से तो यही ज्ञात होता है की ढोल, गवाँर, शूद्र, पशु और नारी को समझने की बात कही गयी |
अगर हम ढोल को बिना सोचे समझे या सीखे बिना बजायेंगे तो वह बेसुरे राग को जनम देता है जिसे कोई भी सुनना नहीं पसंद करता है |
गवाँर को को समझाने के लिए पहले हमे उसे समझना होगा क्यों की एक गवार एक नासमझ बालक की तरह होता है जो अपनी बात पर अड़ जाता है जिसे सुनकर हम उसे समझा सकते है | जब तक आप उसको सुनोगे ने वह अपनी बात पर अड़ा रहता है |
शूद्र किसी विशेष जाति को कहना बिलकुल गलत होगा | शूद्र मेरे हिसाब से वो है जिसका मन मैला हो को कर्म न कर के खाये…शायद इस लिए कुछ जगह मैंने पढ़ा है ब्राह्मण से बड़ा कोई शूद्र नहीं…..
पुराने समय में अक्सर ब्राह्मण अक्सर छोटी जाति के लोगो को डरा धमका कर उनसे कुछ न कुछ लेते रहते थे |
पशु से हमें दूध मिलता है उसे हम पीते है बेचते है जिस से हमें लाभ होता है जो हमारी जीविका को चलाता है | पर कई बार वह बीमार हो सकता है या भूखा प्यासा | जिस कर के वह दूध दोहने समय हमें लात भी मार देता है | वहाँ हमें उसे समझने की जरूरत होती है क्यों की वह अपना दर्द बोल कर नहीं बता सकता है |
नारी का जीवन ज्यादातर घर में ही गुजरता है एक नारी अपना घर छोड़ कर एक आदमी के साथ उसके घर में आ जाती है जिसे उस आदमी को अपना सब कुछ मानना पड़ता है उसके घर वालो और अपने बच्चो का भी धयान रखना होता है | उसकी सारी उम्र घर की चारदीवारी में गुजर जाती है |
शायद इसलिए तुलसी जी ने स्त्री को समझने के लिए कहा हो | क्यों की उस समय नारी की दशा अच्छी नहीं थी कुछ लोग भोग विलास की वस्तु ही समझते थे |
अगर कोई गलती हो गयी हो तो मुझे माफ़ करे……
मनिंदर सिंह “मनी”
आपके द्वारा प्रस्तुत विस्तरात्मक विवेचन काबिले तारीफ है और प्रभावशाली भी …..यक़ीनन ऐसे ही भावो की आवश्यकता है …..प्रत्येक व्यक्ति स्वंय समाज का आईना होता है ………इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिए की …. गलत धारणाओं को आवश्यक परिवर्तन के साथ सामाज में सकारात्मक रूप में परोसी जाए जिससे आने वाले समय में एक अच्छे समाज के निर्माण का निर्माण हो और भावी पीढ़ी को समुचित लाभ मिल सके !………..बहुत बहुत धन्यवाद आपका मनी !!
स्वप्न
मैं उनसे नफरत करता हु
कॉमरेड
जिसने खुद को आत्मसमर्पण किया
ऋतू के बदल जाने के साथ
याद है हमने अपनी मां के भरी आँखों से बात की थी
अपना जीवन बाजी रखा था
हमारे जिद्दी इच्छा के साथ
कल के खूबसूरत अध्याय के लिए
जिन पर लिखते है नया उछाल नया राग के साथ
हमारी प्यारी स्वप्न
कॉमरेड !!!
क्यों तुम भाग गए जीवन के रथ में सवार होकर
तुम तो सिर्फ एक इच्छा के साथ जीवित हुए
हम लाखों इच्छाओं के साथ मर गए
अब कौन ढोएगा तुम्हारी स्वार्थ की बेजान सी गठरी को जीवनभर
याद है हमने अपनी मां के भरी आँखों से बात की थी
अपना जीवन बाजी रखा था
हमारे जिद्दी इच्छा के साथ
कल के खूबसूरत अध्याय के लिए
जिन पर लिखते है नया उछाल नया राग के साथ
हमारी प्यारी स्वप्न
कॉमरेड !!!
……. और फिर
आज भी में उठ जाता हू
नीला चेहरा लेकर
और आईना में देखता हूँ चहरा अपना
जिसके पीछे मेरे कामरेड खडे है
बंदूक लेकर
और फायर करते हैं गोली मेरे सपने में…………….
क्रांति जी शायद आपने अपनी रचना गलत स्थान पर पोस्ट की है , यह स्थान अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए है , रचना पोस्ट काने के लिए साइट का प्रयोग करे ! धन्यवाद आपका !!
तुलसी दास जी रामायण की यह श्लोक अवधिया भाषा मे लिखा हुआ है और ताड़ना का अर्थ होता है समझाने लायक या जिसे समझना चाहिए। जैसे ढोल की समझ आपको नही है तो उसकी आवाज कर्कश ही लगेगी। गवार का अर्थ जो अज्ञानी है अगर इस श्लोक की पहले की श्लोक कोई पढ़े तो पूरा घटना या पूरा अर्थ आसानी से समझ जा सकता है। एक तरफ तुलसी दास जी इसी रामायण में माता सीता और महिलाओं को देवी तुल्य बता रहे है ओर राम जी को एक भील महिला के जुटी बेर खाने की बात लिखी है तो ऐसे में वो कैसे इनके बारे में गलत लजख सकते है सोचने की बात है लोगों को चाहिए कि ओ अपनी गायन का विस्तार करी
बहुत बहुत शुक्रिया मनोज साहू जी …आपने रचना पर गौर किया और अपने अमूल्य विचार साझा किये ! दरअसल बात सोचने, समझने और और उसके प्रयोग की है ,,,,,,,,,,,,सृष्टि में विधमान प्रत्येक शै : को सदैव दोहरे पहलुओं से आंका जाता रहा है जैसे अनुकूल या प्रतिकूल अथवा सकारात्मक व नकारात्मक….सोचने वाली बात है की हम लोग उसे किस प्रकार ग्रहण करते है उसमे भी भेद यह है कि प्रत्येक व्यक्ति हर चीज़ को अपने फायदे के अनुसार उसका प्रचार, प्रसार या अभिव्यक्ति पेश करता है ! जबकि जो चीज़े सामाजिक व्यवहार को सीधे तौरपर प्रभावित करती है उनका प्रयोग उसी के अनुरूप किया जाना चाहिए न कि व्यक्ति विशेष या वर्ग के लिए …………..!
आशा है आप इसी तरह हमारी अन्य रचनाओं पर भी अपनी अमूल्य अभिव्यक्ति दर्ज़ करेंगे और हमारा उत्साहवर्धन करते रहेंगे ……आपका कोटिश धन्यवाद एवं पुनश्चय धन्यवाद आपका !
रामचरितमानस में यह दोहा किस स्थान और संदर्भ में कहा गया है, यह पढ़ने पर अनुमानतः भ्रम नहीं होगा।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका !!