गीत अपाहिज-सा यह मेराअधरों तक ही चल पाता हैबन प्रार्थना विकल्प रूप-साआँसू बनकर ढ़ल जाता है । शब्दों की बैसाखी पाकरबात अधूरी कह पाता हैऔर भिखारी-सा बेचाराठोकर ही हर पल खाता है अर्थ ढूँढ़ता अंधे युग मेंअक्षर मन को छल जाता हैगीत अपाहिज-सा यह मेराअधरों तक ही चल पाता है । मन में, उर में पीड़ा के स्वरबिखर बिखरकर रह जााते हैंकहने को ज्यों बादल आतेगरज गरजकर उड़ जाते हैं प्यासे चातक-सा तब हारागीत बिचारा छल जाता हैगीत अपाहिज-सा यह मेराअधरों तक ही चल पाता है । भाव उठें अथाह सागर सेहै गहराई का माप नहींछन्दबद्ध लहरों को लेकिनजर्जर नैया का मान नहीं टूटी सीपी-सा गीत-रूपतट पर बिखर कुचल जाता हैगीत अपाहिज-सा यह मेराअधरों तक ही चल पाता है । कोमल उर की निर्मल धारासोचे गीतों को मिल जावेतेरी वीणा के तारों सेस्वर में निर्मलता खिल जावे छूकर किन्तु पीड़ा मन कीमेरा गीत बदल जाता हैगीत अपाहिज-सा यह मेराअधरों तक ही चल पाता है । थका थका-सा गर मन मेरापूजा में तेरी रम जाावेमेरी सारी शिथिल शक्तियाँगीतों में पुलकित हो जावें पर तन का बिखरापन हरपलसारा अर्थ बदल जाता हैगीत अपाहिज-सा यह मेराअधरों तक ही चल पाता है ।….. भूपेन्द्र कुमार दवे00000
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बहुत खूबसूरत रचनात्मक शैली ….ठहराव नजर आता है आपकी रचनाओं में !!
‘पर तन का बिखरापन हरपल
सारा अर्थ बदल जाता है’
सच, अब उम्र थकाने लगी है
पर आपके शब्दों से कुछ हिम्मत आ जाती है
जिससे कुछ लिख पाता हूं।
धन्यवाद
Bahut Sundar
बहुत ही खूबसूरत…………. ।
bahut sundar………daveji….oron ki rachnaon pe bhi apne vichaar kabhi deejay…
bhut hi sundar bhav se laybdhh kavita ……….dave ji…………