जब कभी खुशियों के बादल झूमकर बरसें नयन तरसे लबों पे जिक्र हो, आँखों में पानी हो। हम जिए तो भी मरें तो भी वतन के वास्ते क्यों न खिलती और महकती राजधानी हो। टूटती सारी हदें हैं जल रही सब सरहदें हैं खौफ का मंजर दिलों में टूटे सारे वायदें हैं कल तिरंगे में लिपट आयें जो माँ की गोद में ना सियासत हो भरम हो और न कोई बेईमानी हो। मानता हूँ कि दीवारों पर टिकी है घर की छत खिड़कियां हो,खिड़कियों पे हो वफ़ा की दस्तख़त तंगदिल न हो मोहब्बत न जफ़ा की चोट होदे दीवारें हौसला जब मुश्किलों की धूप आनी हो। ..देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”
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Devendra antim Banda Kuch kataa saa prateet ho raha hai. Bhaav jo kah naa chaah rahe ho dubak se gave hai.
अमूल्य प्रतिक्रिया।मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद सर।
भाव तो बहुत सुन्दर है….तालमेल में कमी है…..जैसे….
हम जिए तो भी मरें तो भी वतन के वास्ते
क्यों न खिलती और महकती राजधानी हो।
ऊपर पंक्ति वतन के लिए है तो नीचे ‘राजधानी खिलती महकती’ सिर्फ….
ऐसे ही बाकी रचना में है……
Prayaas achha hai
अपने भावो को शब्दो में ढालने का अच्छा प्रयास ……………लेखन को उम्दा बानाने के लिए आवश्यक है अधिक से अधिक रचनाकारों को पढ़े बहुत कुछ सीखने को मिलेगा !
Very nice……. गुणीजनो की बात भी सही है।
प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार।