तरही ग़ज़ल22 22 22 22दिल पे जितनी बार करोगे जीना तुम दुस्वार करोगे छोड़ सराफत भाईचारा आखिर क्यों तकरार करोगे मजहब के चश्मे के पीछेबारूदी बौछार करोगे अपनों के ही सीने पर तुमछुपकर कितना वार करोगे कलंक की कालिख में खुद ही चौपट तुम घरबार करोगे गलती पर गलती करके कबतक यूँ इनकार करोगेसबको धोखा देने वाले*हमसे कितना प्यार करोगे*डॉ छोटेलाल सिंह
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bhut sundar kavita chhotelal ji………………………….
बहुत उम्दा ग़ज़ल डॉ साहब …………..आप कलम के जादूगर है …………..आप की शान जितना कहा जाये कम है !!
अन्यथा न लेते हुए मेरे संशय को स्पष्ट करे ….प्रथम शेर या मतले की प्रथम पंक्ति का भाव कुछ अस्पष्ट जा नजर आ रहा है …”दिल पे जितनी बार करोगे” के स्थान पर शायद “दिल पे जितने वार करोगे” या “दिल से जितनी बात करोगे” ऐसा कुछ हो सकता है क्या …शायद टंकण त्रुटि भी हो सकती है ….या फिर मेरी समझ का फेर भी हो सकता है !!
बहुत सुन्दर………
Bahut sundar rachna…
Very nice …………………,
बहुत बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल आपकी………. ।