मिलके भी हम रहे जुदा जज़्बात क्या करे…तन्हाईओं में भी फिर मुलाक़ात क्या करे…..है रात सी सहर तेरी ज़ुल्फ़ों के साये में…दुनिया के रंजो गम को बयानात क्या करे….थी दूर तक निगाहों में राहें बिछी पड़ी….तुम हो नहीं तो मंज़िले ख्यालात क्या करे…नहीं जाम छलका अब के, ना ही आँख नम हुई…किस्मत की लकीरों से सवालात क्या करे….”चन्दर” दिले जुबां पे क्यूँ आये और नाम…जीए मरे उसी पे तो कायनात क्या करे….\/सी. एम्. शर्मा (बब्बू)
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Bahut hi sundar rachna…Sharmaji…
तहदिल आभार आपका…..Anuji….
शर्मा जी , कई बार अंग्रेजी भाव -संप्रेषण के लिए बढ़िया लगती है । यही कहूँगी –too awesome .
हा हा हा ….आप सही कहती हैं मीनाजी…..तहदिल आभार आपका……..
bhut hi khoob sharma sir……………. gajab …..
तहदिल आभार आपका…..Madhuji…..
behad sundar …………………..
तहदिल आभार आपका……Madhukarji……
बहुत उम्दा बब्बू जी ……..दिल की गहराइयो में उतर कर लफ्ज़ संजोये है आपने ……….लाजबाब !!
अंतिम शेर यानी मक्ते की प्रथम पंक्ति में “ना” उचित है या अनुचित संशय में हूँ ……………..!!
आप का तहदिल आभार निवतियाजी….मैंने “ना” इस लिए रखा की सामने कायनात और चेहरे नाम लाती है जब…तो मन उसमें क्यूँ रमे….इसका जवाब है वो…बिना “ना” के फिर शेर यह कैसा रहेगा….
“चन्दर” दिले जुबां पे क्यूँ आये और नाम…
उसके सिवा किसी की कोई बात क्या करे….
मैं नादाँ जो समझा उस अनुरूप संशय में था….
“दिले जुबां पे क्यूँ आये ना और नाम”…का तातपर्य होता है की कोई और नाम जुबान पे क्यों ना आये……अर्थात उसके आलावा भी विकल्प मौजूद है …..कायनात अपने आप में समूर्ण सृष्टि, संसार या जगत से होता है.
“जीए मरे उसी पे तो कायनात क्या करे” तात्पर्य जीये मरे उसी पे तो फिर कायनात भी कुछ नही कर सकती !!
हा हा हा ….मार डाला पूरा ही….काश आप जैसे नादाँ मैं भी होता….ह्रदय की सभी तलों से बहुत बहुत आभार…..
बहुत उम्दा……बब्बू जी |
तहदिल आभार आपका……..vijayji….
बहुत ही बेहतरीन…………… आपने अपने शब्दों की खूबसूरती बिखेर दी……. लगता है कि कुछ कुछ सिख रहे हैं आप मुझसे…….. हा हा हा हा हा हा हा
आप सही पकडें हैं…काजलजी…हा हा हा….तहदिल आभार….
bahut hi behtareen c m sharma sir…..
बहुत बहुत आभार…..Maniji……..