*ग़ज़ल**बह्र- १२२२ १२२२ १२२*(काफिया *ई* और रदीफ़ *है और मैं हूँ*)जहाँ में कुछ कमी है और मैं हूँ,स्याही किश्मत हुई है और मैं हूँ।हृदय की वेदना आँखों से निकली,फिजां ग़म में सिली है और मैं हूँ।गए किस देश को, कैसे,कहाँ हो?नज़र प्यासी बड़ी है और मैं हूँ।हजारों गम समेटे क्षण हैं सारे,निशा बाकी पड़ी है और मैं हूँ|चमक खो ज़िन्दगी धूमिल बनी है,*बड़ी नाजुक घड़ी है और मैं हूँ।*किनारे पर खड़े हो देखता हूँ,नदी बढ़ने लगी है और मैं हूँ।’अरुण’ को ढूंढता हूँ ‘मैं’ में तुम बिन,मेरा ‘मैं’ ग़ुम कहीं है और मैं हूँ। -अरुण
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Atyant sundar ……….
स्वागत आपका….बहुत दिनों बाद आपकी रचना मिली…..बहुत ही खूबसूरत……..
बहुत खूबसूरत ……….लंबे अंतराल के बाद समूह में आपका स्वागत है !!
Bahut hi khubsurat rachna……… Hamesa ki tarah…….. Arun ji