बहुत दिन बीते मेरा घर ,
मेरे लिए परदेसी सा हो गया है ।
मेरी ही तरह अपने ही शहर में ,
अजनबी सा हो गया है ।
खाली छत पे झुका बूढ़ा सा पेड़,
टूट गया या पता नही, हरा खड़ा होगा ।
कच्चा आंगन था मिट्टी वाला ,
शायद अब कंकरीट पड़ा होगा ।
राबता है उसके संग ऐसा,
सांसों की डोर सा बंधा रहता है ।
मैं जाऊँ चाहे कहीं भी यादों में ,
साये सा साथ रहता है ।
XXXXX
“मीना भारद्वाज”
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Bahut Behatreen ………………meena ji
Hardik aabhar Nivatiya ji
Behad khoobsoorat. Ham sabhi ki bhaavnaaon ko aapne shabd de diya hain Meena ji ……..
Thank you so much Shishir ji.
Bahut Sundar Meena Ji
Tahedil se shukriyaa Vivek ji .
अच्छा है | हाँ अच्छा है |
Thanks Ashish ji.
मीनाजी….आप ने “घर” ही सामने ला खड़ा कर दिया…जो दुर्लभ सा है आज कल…रिश्तों का प्यार कंक्रीट खा गयी…मकान रह गए हैं…मैंने बहुत पहले कुछ लिखा था ऐसा…याद आया या मिला तो आपकी नज़र पेश करूंगा… आपका चयन शब्दों का…लाजवाब है…बेहतरीन है यह “घर”…..बेहतरीन….
Sharma ji , आप अपनी रचना अवश्य साझा कीजिएगा मुझे हार्दिक खुशी होगी ।आपका रचना सराहना के लिए हृदयतल से आभार ।
bhut hi khoobsurati se ukera hai aado ko apne………
Thank you so much Madhu ji.
Bahut hi laajawaab rachna…….. Meena ji
Thanks Kajal ji for appreciating my work.
Bahut sunder……………. .. ……..
Thanks a lot .
बेहतरीन रचना मैम …….. हर बार की तरह बेहतरीन……….
Hardik dhanywad Alka ji .