ऐ सूरज जरा ठहर अपनी किरनों को थोड़ा शहर मे आने देबाह बाजार की ठण्ड से मेरी कंपकंपाते हुये बदन को तप जाने देठिठुरते हैं लोग जहाँ पर उनको थोड़ी सी राहत तो दिला जाअपनी किरनों से उस छोटे से शहर को थोड़ा तो चमका जातू दिखता नही पर फिर भी तुझे जल चढ़ा जाते हैं कोई रामकुण्ड तो कोई रौड़ अपने बदन को तपा जाते हैंपर अब तुझे इस शहर के बीच आसमां से गुजरना होगालोंगो के जल का तुझे कुछ तो कर्ज चुकाना होगापर ये क्या तू इतना सुनकर ही पश्चिम से अस्त हो गयाऔर मेरा बरसों का किया सूर्य-नमस्कार भी ब्यर्थ हो गयालेकिन सब्र कर जिस दिन खेड़ा के पर्वत की ऊँचाई घट जायेगीठिठुरते हुये बदन को जब तेरी किरन तपा जायेगीउस दिन म्रेरी सपनों की दो पंक्तियां खुद ब खुद सच हो जायेंगी
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बहुत अच्छा सर सूरज का पूरा निचोड़ बखूबी दर्शाया है ।
bhut khoob mang suraj se apki..
……………..anup ji…..
Bahut hi sundar……………..
Nice…………अति सुन्दर
Nice one…….,
Ati sunder……….