गुब्बारों का लगा है मेला।एक रुपए में ले लो जैसा।लाल,गुलाबी,नीला,पीला।पैसे लेकर दौड़ी शीला।माँग लिया गुब्बारा नीला।इधर से डोला- उधर से डोला।श्यामू,चिंटू,सीता,लीला।खेल सभी ने मिलकर खेला।चीख उठी तब उधर से शीला।मेरा छूट गया गुब्बारा नीला।श्यामू डोर पकड़ जब डोला।उधर से डोला-इधर से डोला।खेल गुब्बारों से ही था खेला।गुब्बारे वाले का नाम छबीला।आठ रंग का कुरता ढ़ीला।गुब्बारे वाला तब उधर से बोला।गुब्बारों का भेद जब खोला।टूट डोर जब जायेगी शीला।हाथ लगे न कुछ फिर सीता।तुमने इसे दबाया लीला।खेल रुक चले सभी का।गुब्बारों का खेल ही ऐसा।देखो लगा हुआ है मेला। सर्वेश कुमार मारुत
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bhut khoob shrvesh ji…………………..
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sundar…………..
nice poem…………………………..