छन्द अलंकारों से सजी कवितामुझे सोलह श्रृंगार युक्त दुल्हनतो कभी बोन्सई की वाटिका समान लगती है ।
कोमलकान्त पदावली और मात्राओं-वर्णों की गणनाउपमेय-उपमान , यति-गति के नियम औरभाषा सौष्ठव सहित छन्दों की संकल्पना ।
कोमल इतनी की छूने सेमुरुझा जाने का भरम पलता हैनर्म नव कलिका सी टूट जाने का डर.लगता है ।
मुझे कविता कानन में बहती बयारतो कभी निर्मल निर्झर समान लगती. हैनियम में बाँधू तो जटिल आंकड़ों की संरचना जान पड़ती है ।
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“मीना भारद्वाज”
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Meena ji is rachnaa ke ant me aapne mere man kee baat kah di. Kala ko nihamo se aawashyaktaa se adhik baandhnaa ajeeb saa lagtaa hai..Badi khoobsoorati se aapne Kavitaa ke saundarya or takneeki paksh par apne vichaar rakhe hain.
Heartily thanks Shishir ji.sachmuch Jo gunijan niyamon ke anusaar likhate hai vastav me un sab ke liye respect aata hai man me .
bhut khoob meena ji mahan kavi nirala ji ke vichar se mel kha raha hai
Hardik dhanyawaad Madhu ji .B.ed karate samay kavita ki visheshataon me padhi thi ye baate .Nirala ji jaisi mahan vibhuti ki misaal kahan.unKo padhte sunate aaj ham sabhi yahan tak pahunche hai .
Very nice……………..आपकी बातों से सहमत हूँ लेकिन मुझे लगता है सीमाओं का बंधन न हो तो भी उचित नहीं है और सख्त हो तो भी उचित नहीं है. ऐसा हो जिसमे स्वछन्द रूप से पुष्प खिले और हम उसकी खुशबू ले सकें. बहुत सुंदर रचना.
Vijay ji .आप के कथन.से सहमत हूँ . शायद नियमों में कठिन पाबन्दी उलझन बढ़ा देती है .अच्छा लगा आप के विचार जान कर . रचना सराहना के लिए आप का हृदय से आभार.
wah meena bahut hi sunder baat kahi aapne…is sunder kavita ke madhyam se…..badhai apko
Heartily thanks for appreciating my poem Mani ji .
Meenaji…..लाजवाब सोच की…लाजवाब कलम की…लाजवाब रचना………अपने अपने विचार हैं…विजयजी की बात से भी सहमत हूँ….नियमों का न होना ज़िन्दगी हो या कुछ भी…..अव्यस्थता पैदा करता….अल्प विराम…विराम न हों तो रचना अस्पष्ट हो जाती और माधुर्य खो देती है ऐसे ही ज़िन्दगी भी….अधिकता जो प्रसार और माधुर्य को नष्ट कर दे…उसका बदलना या नष्ट होना ज़रूरी है….
Sharma ji , आप लोगों का कथन शत प्रातिशत सही है .और इसलिए मन में आदर की भावना भी आती है .आपने और विजय जी ने उचित मिश्रण के तथ्य से अवगत कराया उसके लिए अत्यन्त आभार ..
Beautiful MEENA ji………………सबके अपने अपने विचार और मत हो सकते है जो होने भी चाहिये, दरअसल जिसे हम बंधन या सीमाएं समझते है वास्तविक रूप में वह अनुशाशन का दूसरा नाम है और मेरी नजर में “अनुशाशन सभ्यता की धरोहर होती है l”
Heartily thanks Nivatiya ji इस कविता में. मैने स्वच्छन्दता को पूरी तरह ना अपनाते हुए. “बहती बयार” और ‘निर्मल निर्झर” का उल्लेख किया हैं साथ ही साहित्यिक अनुशासन की खूबसूरती को उसकी पूरी गरिमा के साथ स्वीकार किया है ।बस मन की उलझन का उल्लेख किया। है जिसे सरलता व सादगी ही भाती है .एक बार पुनः आप सहित सभी विद्वानों का हृदय से आभार कि आप सब ने अपने विचार प्रकट कर मुझे नई दिशा प्रदान की।
बहुत सुंदर रचना मैम……….
Thanks Alka ji.