आज याद आती है-पिताजी की वो बातेंथकान और तनावग्रस्त आकरलंबी सांसे ले बिस्तर पर ऐसे बैठनाजैसे-किसी परिंदे को मिला हो अपना बिछड़ा परिवारसुकून भरी शाम की चायऔरमाँ की ममतामयी मुस्कान की मिठास के बीच उनका बोलना-“बहुत मुश्किल है मगरमच्छों के बीच रहनान जाने कौन ,कब और कहां निगल जाये-इस संस्कृति की अजीब व्यवस्था है-यहाँ ज़िन्दगी भी उत्कोच मांगती है|धन और सिफारिशों के इस खेल में मैं तो विपन्न सा प्रतीत होता हूँ|कुछ क्षण अपलक शून्य में निहारते-धीरे से मुस्कुरा कर प्रश्न करना-भौतिकता के इस युग में, मेरे व्यक्तित्व की नैतिकता क्या अप्रासंगिक है?सिफारिशों के इस दुर्धर्ष लपट में –मेरी कर्मठता का हठयोग, क्या अप्रासंगिक है?इस व्यवहारिकता के पैमाने में-मेरी मित्रता की परिभाषा, क्या अप्रासंगिक है?आदर्शों और सिद्धान्तों से सींचा मेरा जीवन, क्या अक्षम्य है?फिर,मेरी ओर देख-उनका यह कहना —बेटा, तू भी मेरी इन मूल्यों में सींचा मेरा स्वप्न है,मेरा वटवृक्ष है|तू तो छाया देगा न?और मैं, मन ही मन कहता —-यह छाया आपकी ही तो हैआपको शीतल करने को सदैव तत्पर|—-ऋतुराजमुजफ्फरपुर
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Riturajji…..समय के साथ होता नैतिक मूल्यों का पतन …यथार्थ पटल पर … बहुत खूब…. हाँ अगर धरोहर संभाल सकें हम तो बहुत बेहतर हो सकता है आने वाला कल….बहुत ही खूबसूरत….
Bahut sunder…………!
plz read बीता जाता है ये जीवन
very inspiring thought ……..very nice …………..!
Thank u Nivatia ji, Shamra ji and sumit ji.