मेरे सीने से भी प्यार की खुश्बू आये मुमकिन है,मेरी आंखें भी प्रियवर के स्वप्न सजायें मुमकिन है,मेरी उंगली भी सावन सी जुल्फों में खो सकती है,और मेरी दुनिया भी उसके पहलू में सो सकती है,मेरी भी चाहत होती है उस पर सौ-सौ गीत लिखूं,वो हार कहे तो हार लिखूं वो जीत कहे तो जीत लिखूं l लेकिन जब इस आज़ादी का अनुभव होने लगता है,तब व्याकुल मन कुछ धुंधले दृश्यों में खोने लगता है,फ़िर बेचैनी मन से कुछ प्रश्नोत्तर करने लगती है,और श्वेत पत्र पर लाल रक्त की बूंदें झरने लगती हैं ,फ़िर अनायास शब्दों में जिम्मेदारी आने लगती है,और मेरे आगे मेरी खुद्दारी आने लगती है,कहती है कि जब तक घर से चीखों का उद्धार ना हो,तब तक कैसे मुमकिन है कि आंखों में अंगार ना हो,तब जलती आंखों से निकले सब फव्वारे कहते हैं,और कलम की छाती से फूटे अंगारे कहते हैं,कि ऐ बहार, ऐ सावन तुमसे रिश्ता जोड़ नहीं सकता,मैं किसी हाल में राष्ट्रभक्ति की कसमें तोड़ नहीं सकता,मैं नहीं किसी को राष्ट्रभक्ति के पाठ पढाने आया हूं,मैं कलमकार हूं केवल अपना फर्ज निभाने आया हूं l *अब वो बात जो 70 सालों से रूह को झकझोर रही है* और हिमालय को कितने बेटों के खून से धोना है,कितनी मांओं के लालों को काल गर्भ में सोना है,आखिर मां के दामन में कितना अंगारा भरना है,हमें बता दो शांति-शांति का ढोंग कहां तक करना है, कब तक हाथों की महेंदी को अश्कों से धुलवाना है,कितने मंगलसूत्रों को घाटी में और जलाना है,बूढ़े कंधों पर कितनी लाशों का बोझ गिराना है,नन्हें हाथों से कितनी लाशों को आग दिलाना है, बहनों से कब तक कहना है हाथ से राखी छूट गयी,भाई से कब तक कहना है रीढ़ की हड्डी टूट गयी,बच्चों से कब तक कहना है पापा अब ना आयेंगे,हमें बता दो आखिर कब तक हम ये ढोंग रचायेंगे, सत्तर सालों से लाशों पर बातचीत का रोना है,उपर खूनी मौसम है नीचे लाशों का बिछौना है,कोई राष्ट्रभक्त चैन की नींद नहीं सो सकता है,माफ़ करो अब धैर्य शांति का ढोंग नहीं हो सकता है l जब जलपति भी अपनी तय सीमा के बाहर छूट गया था,तब रघुपति ने भी धनुष उठाया उनका धीरज टूट गया था,जब जलपति ने उनकी प्रेम की विनती को ठुकराया था,तब तीन दिनों में उनकी भी आंखों में काल समाया था l फ़िर हम तो सत्तर सालों से सीने पर गोले सहते हैं,और धीरज जाने कब टूटेगा इसी सोच में रहते हैं,जाने कहां पे सोया है क्यूं लावा फूट नहीं जाता,और हमारे रघुवर का क्यूं धीरज टूट नहीं जाता l शायद उनको लगता है यह शांति प्रेम का संचय है,लेकिन सच पूछो यह केवल कायरता का परिचय है l जब गीदड़ के झुंड सिंह को आंख दिखाने लग जायें,और कौवे बाजों से अपने पंख लड़ाने लग जायें,जब शावक की पीठ में चूहे दांत गड़ाने लग जायें,और कुत्ते सिंहों को अपने समतुल्य बताने लग जायें,तब मौन युक्त कायरता को चेहरे से हटाना पड़ता है,और दुश्मन को उसकी ही भाषा में समझाना पड़ता है l सत्तर सालों से गीदड़ हम सिंहों को ललकार रहे,और हमारे शावक अपने राजतंत्र से हार रहे,आखिर कब तक रश्मिरथी को तिरस्कार सहना होगा,कब तक घायल सिंहों को मर्यादा में रहना होगा l ऐ किरणों के स्वामी! अब बारी है तेज दिखाने की,और तिमिर के साधक को उसकी औकात बताने की l अक्सर हम इस सच को भी नादानी में झुठलाते हैं,कि पेड़ों में बैठे दीमक ही पेड़ों को खा जाते हैं,विषधर की जकड़न में जब तक जंगल की कस्तूरी है,तब तक सरहद से होती हर कोशिश बहुत अधूरी है,जब तक हिरणों के झुंडों में लोमड़ियों का आना है,तब तक बागों को चीखों से मुश्किल बहुत बचाना है l तो कस्तूरी को बाहर लाओ, दीमक से भी निदान करो,घर में बैठे सब के सब जयचंदों की पहचान करो,बेशक अपनी सेनाओं को हथियारों से दक्ष करो,लेकिन पहले भारत को इन गद्दारों से स्वच्छ करो,लेकिन पहले भारत को इन गद्दारों से स्वच्छ करो ll Er. Anand Sagar Pandey,”अनन्य देवरिया”Mob.08816832860
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bhut khoob devariya ji……………………………
Lovely sarcasm on hypocrisy.
bhut badiya………………………………………..
plz read both poem
सफलता का पैमाना नहीं होता
जिंदगी
Ananyaji………Behad khoobsoorat….yatharthpooran kataaksh………..
Bahut sunder rachna Anand ji…..
Good Job with positive thought ………!!
Beautiful……………………………..