-: कौन यहाँ ?: :- जख्मों को हमारे, मरहम लगता, कौन यहाँ ?जीने की लाठी जो टूट चुकी, जोड़ता, कौन यहाँ ?गुल खिला,गुलिस्ताँ इक बनाया था हमने,आज उन सूखे पेड़ों को, सिंचता, कौन यहाँ ?आरमान सारे गवा दिये अपने, जिसको बनाने में । वो महफिलें,रंगरलियाँ मनाता,अपने आरामखाने में ॥ तरस गए दो शब्द प्यार के सुनने को, उनसे आँखों के सूखे मोती को, देखता , कौन यहाँ ?हैं जिनके नाम से ऊंची ऊंची इमारतें । दिल मे ही कैद रही, थी जो हसरतें ॥ नौकर-चाकर, महाराज, थे जिस घर में,आज भूखे पेट को निवाला,खिलाता, कौन यहाँ ?तू जीये हजारों साल, तरक्की दर तरक्की हो । दुआ है हमारी, हो बुलंदी,खुशियाँ ही खुशियाँ हो ॥ आज है जिनकी सौकड़ों मिलें,कारखानें, वस्त्रों की मगर,हमारे तंज़,फटें कपड़ों को, सिता, कौन यहाँ ? -: सोनू सहगम :-
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Bahut sunder………………………………
धन्यवाद !! विजय जी
lovely creation………………!!
धन्यवाद !! निवातियाँ जी
Sonu ji, Bhaav achche hain par kahi kahi rachnaa bhatki hai
dhanyvad G!!…aage se is bat ka dhyan rakhunga Shishir G
Sonuji…..रचना में तारतम्य की कई जगह कमी लगी ….भाव बहुत सुंदर हैं…….
dhanyvad G!!…apni agli kavita me hum is bat kadhyan rakhenge….ek bar fir apko dhanyvad