“ज़िन्दगी के लिए”ज़िंदगी में,ज़िन्दगी के लिए,सफ़र दर सफ़र बढ़ते हुए,रिश्तों को किस्तों में निभा रहे,अपनी मुस्कान को गवां रहे।भौतिकता के युग में,सुखी संपन्न कहलाने के लालच में,अपने माता-पिता का स्नेह गवां रहे,अपने बच्चो से उनका बचपन छीन रहे।ज़िन्दगी में,ज़िन्दगी के लिए,सफ़र दर सफ़र बढ़ते हुए,वो अपना जायका,महंगे रेस्तरां में ढूंढ रहे।अपने लिए सुकून की नीदं ,वो डनलप के गद्दों में ढूंढ रहें।वो अपना प्यास,बिसलेरी की बोतलों से बुझा रहे।वो अपना मनोरंजन,मॉल,मल्टीप्लेक्स में खोज रहे।वो नहीं जानतें,सुकून बाजार में नहीं मिलता।नींद तो माँ की गोद में ही मिलती हैं।मनोरंजन मेले का,पिता के कंधे पे बैठकर ही होता है।मुस्कान किसी दुकान में नहीं,बच्चो के चेहरे पे ही दिखती है।–अभिषेक राजहंस
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Bahut khoob…………
true words sir…………………………
Bahut khub………………………..
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Very nice ………..अति सुन्दर !!