एक दिन लडडू जलेबी की मुलाक़ात हो गयी….लडडू ने जलेबी को देखा बड़े गौर से…शरारत में मुंह खोला..बोला ज़रा जोर से..क्यूँ इतना इतराती हो अपने छरहरे बदन पे..माना कई कलाएं हैं तुझमें…पर हम भी कुछ कम नहीं हैं….तुम क्यूँ इतना इतराती हो…….जलेबी ने कमर मटकाई…आँख भिचकाई…बोली …तुम तो चुप्प ही करो…जिधर देखो उधर लुडक जाते हो…बे पैंदे के लोटे हो…मुझसे मेल नहीं खाते हो….लडडू पीले से लाल हो गया….बोलने का स्वविजयी अंदाज़ हो गया…मैं तो प्राकिर्तिक हूँ….देख…पृथ्वी, चाँद और सूरजजिन पर हम आश्रित हैं…सब गोल हैं…तुम आप्राकीर्तिक हो….बेवजह भाव खाती हो…जलेबी अब गम्भीर हो गयी…शांत स्वभाव से बोली…क्या जानो तुम प्राकिर्तिक अप्राकिर्तीक मर्म को…ज़ालिम हाथ मेरी रचना बिगाड़ देते हैं….कलाकार समझ अपने को…अपने मन मुताबिक संवार देते हैं…अपने स्वाद की खातिर…मुझको यूज़ करते हैं….नहीं पसंद आये तो फेंक देते हैं…दर्द संजोए बैठी इतना…फिर भी मिठास देती हूँतुम क्या जानो प्रकिर्तिक अप्राकिर्तीक के मर्म को…\/सी. एम्. शर्मा (बब्बू)….
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Behtreen …………………
बहुत बहुत आभार…Madhukarji……..
Beautiful poem Sharmaji….
बहुत बहुत आभार…….Anuji……..
sundar sir……
बहुत बहुत आभार……..Madhuji………
Sharma ji ,ati sundar……..,behatreen……., bahut khoob..
बहुत बहुत आभार………Meenaji…….
Ati sunder……………………………
बहुत बहुत आभार……Vijayji….
wahhhhhhhhh………आपका अंदाज निराला है……….बातो ही बातो में कितनी खूबसूरती से जीवन के गूढ़ भावो का फलसफा समझा जाते हो अति सुन्दर बब्बू जी !!
बहुत बहुत आभार…….Nivatiyaji……
bahut hi anhokne andaz mein aapne apne jiwen ke bhav kahe hai…..bahut hi umda sir……ek naya cheez sikhayi aapne bahut bahut dhanywad sir……………..
बहुत बहुत आभार……Mani Ji……