ये नववर्ष हमें स्वीकार नहींहै अपना ये त्योहार नहींहै अपनी ये तो रीत नहींहै अपनी ये व्यवहार नहीं धरा ठिठुरती है शीत से आकाश में कोहरा गहरा हैबाग बाजारों की सरहद परसर्द हवाओं का पहरा है !सूना है प्रकृति का आँगनकुछ रंग नहीं – उमंग नहींहर कोई है घर में दुबकानववर्ष का ये कोई ढंग नहीं |देख रहा हूँ क्या त्योहार हैलोगों का कैसा व्यवहार हैक्या उत्सव का यही आचार है ? नहीं पावन कोई विचार है | ये देख मुझे आवे हॉसीक्या भूल गये भारतवासीउस दिन ! थी जब छायी उदासीप्रताड़ित ,शोषित असंख्य जन जन संन्यासी |घायल धरणी की पीड़ा कोक्या समझ सके भारतवासी ?जिनके षड्यंत्रों से घिरा राष्ट्र आज अधिक व्यथित खंडित त्रासी !अरि की यादों में निज दर्द भूलखो स्वाभिमान मुस्काते हैंदेशभक्ति का कैसा ज्वर चढा रचायह कलुषित नववर्ष मनाते हैं !!!नया साल नया कुछ हो तो सहीक्यों नकल में सारी अकल बही !ये धुंध कुहासा छंटने दोरातों का राज्य सिमटने दो;प्रकृति का रूप निखरने दो ,फाल्गुन का रंग बिखरने दो |प्रकृति दुल्हन का रूप धर, जब स्नेह सुधा बरसायेगीशस्य श्यामला धरती माता ,घर घर खुशहाली लायेगी|तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि,नववर्ष मनाया जायेगा;आर्यावर्त की पुण्यभूमी पर,मंगल गान सुनाया जायेगा|———————————–© कवि आलोक पान्डेय ———————————–
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bhut gajab hai aapki rachana alok ji
Waah……100% stay…….behad hi khoobsoorti se aapne vikrami samvat ka gungaan kiya hai…
Wah……
Behad sundar….
Bahut khub…
Ati sundar sir….
bahut bahut badhai apko sir ….iss rachana ke liye….aati sunder sir……………………..
Marvelous creation……………….truly said.
of course ! for saying… this glorified stanzas….
of course …….
………!!!
Ati sunder…………………………..
ek baar “डिजिटल भिखारी…” padhen aur apani bahumulya pratikriya den.
कवि का भावनायें, अभिव्विक्ति कला तथा भाव संवहनीयता की सरल भाषा कवि को महान बनातीहैं !