हर कोई वेग़ाना है,सभी का अपना अपना फ़साना है।उलझते जा रहे फ़ासलों क्यों?ये वन्दा कुछ दीवाना है।ज़िन्दगी जीना चाहते हैं,ख़्वाहिशों का आशियां है।रुक चली ज़िन्दगी उलझती राहों में,पर हौंसलों का मुकां है।मासूमियत चेहरे पर है कितनीं?पर कहाँ चेहरे पर निशां है।जिसने तोड़े हैं सीने से पत्थर,न पहलवान पर वह इंसा है।पर जंग जीती ज़िन्दगी में जिसने,वो इंसान ही तो महान हैं।नहीं पोछा करते पसीने को अपने,क्योंकि पसीना ही उनकी जान है।ख़िलते आये हैं फ़ूल ऐसे ही में आज तक,ये सवक क़ाबिले वेमिशां है।सर्वेश कुमार मारुत
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Sarvesh ji……बिखरे से ख्याल लगते हैं……
Ati sundar rachna….
Bahut khub sir…
Bahut khub…………..
ek baar “ये सफर रेल का…” padhen aur apani bahumulya pratikriya den.