लहू भी अब क्या बहेगा, जिस्म के उन मृत रगों से ज़ख्म की रूह भी काँप उठेगी, अब वजूद उनका क्या होगा !क्या है अब जख्म मरहम, क्या हुअा उस दर्द कानियति भी यही कह रही है, अब वतन-ए-इश्क बयाँ होगा!!सरहदें राहों पर उनकी ,कितनी मुसीबत आन पड़ीसाथ कफ़न रख कर चलें हैं, हथेली पर जान पड़ीएक भार है साथ उनके, जिम्मेदारी नाम है,मोह बंधन से मुक्त है पर, रक्षा की है बेजान कड़ी !!विरह में इतना जीते हैं मगर, इनका कहाँ बखाँ होगा !!नियति भी यही….समर चाहे जितना भी हो, हर पहर तैयार हैं,सर्द हो या तपता शरीर, मौसम भी उनका यार है !कहर भी हावी नहीं है उनपर, ना कोई पहाड़ भी,जिंदादिल हैं वे, उनका ज़र्रा ज़र्रा भी कर्ज़दार है !!दिल में इक शिकायत है बस, युध्द हम कितना भी जीतेंहर समर में, हर सफ़र में,मानवता-ए-निशाँ कुर्बां होगामानवता-ए-निशाँ कुर्बां होगा !!!-अमितेष तिवारी
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amitehji….aapke bhaav bahut uttam hai…shabd bhi…par virodabhaas lagta hai…ho sakta mujhe samajhane mein galti huee ho…. shuruaat baaki rachna se nahin milti…. haan yudh ka parniaam to manvata ka nuksaan hi hai…par jis dhang se kaha gaya beech ki rachna se judta nahin lagta….
good try to express your thought ………….बब्बू जी का सुझाव सराहनीय है अमल करे !!
Khubsurat bhaav. …. ….
Ek baar “yeh safar rail Ka” padhen.