चुपके-चुपके सहे अकेले,मुख से कुछ न कहता है।हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,इंतज़ार में रहता है॥थोड़े पल, औ ज़रा-सी चिंता,की ख़्वाहिश वो करता है।मन ही मन उम्मीद लगाए,पर कहने से डरता है॥अपने मन की व्यथा स्वयं के,मन में दबा के सहता है।हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,इंतज़ार में रहता है॥तेरे मन का हाल न जाने,अपने मन का हाल छुपाए।जो कोई पूछे, आँख झुकाकरझूठ सभी से कहता जाए॥सबसे छुप कर नमक बहाता,वह यादों में बहता है॥हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,इंतज़ार में रहता है॥तू धीरे से ख़्वाब में आकर,सब अपना कर जाती है।फ़िर सम्मुख, क्यों नज़र चुराकर,तू इतना डर जाती है॥कब तक रखे छुपाकर सबसे,आज ‘भोर’ यह कहता है।हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,इंतज़ार में रहता है॥©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’
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राणाजी….बहुत ही खूबसूरत है….पर जैसे अंत किया है तो ऊपर की एक पंक्ति अटकती है…..
तेरे मन का हाल न जाने,
अपने मन का हाल छुपाए।
मुझे लगता ये ज्यादा अच्छा है जैसे आपकी रचना चल रही की….
तेरे मन का हाल वो जाने, या तेरे मन का हाल है जाने
अपने मन का हाल छुपाए।
मैं आपके सुझाव का शुक्रिया अदा करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि आपके सुझाव के साथ कविता बेहतर रहेगी, किन्तु यहाँ मैंने कोशिश की है कि यह बता सकूँ की सम्मुख उपस्थित व्यक्ति अथवा नायिका एक पहेली समान है जो अपने को अपने तक ही सीमित रखना चाहती है। वह कुछ व्यक्त ही नहीं करना चाहती है। जिस पर नायक की तरफ़ से व्यंग्य स्वरूप कथन कहा गया है। आपकी प्रतिक्रिया हेतू धन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना……………….
चंद रचनाएँ मेरी भी पड़ी हैं, नजर करें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
“काश ! चाँद छिपता चांदनी के बिन…”
“वक़्त जो थोड़ा ठहरता…”
“धुंध अब छंटने लगी, अरुणोदय होने लगा है…”
आपके बहूमूल्य समय के लिए धन्यवाद। मैं अवश्य आपकी कृतियों को पढ़ना चाहूँगा।