एक दूजे को मर मिटने को देखो कैसे बीज वो रहा।पल पल चढ़ते यौवन में हृदय कैसे गंबीर हो रहा।कैसे देखो लौ दीपक की ऊंचाई तक चढ़ने लगी है।कैसे कुमुदनी हर रोज सबेरे हद से ज्यादा खिलने लगी है।
रथ जीवन का दुर्गम पथ पर देखो अब रफ़्तार भर रहा।कम्पित होती धरती ,और प्रेम हमारा हुंकार भर रहा।
अजब प्रवाह से देखो नैना कैसे अपना नीर खो रहा।एक झलक पाने की खातिर कैसे-कैसे अधीर हो रहा।प्रेम भवर में जगी आस्था तूफानों से कैसे लड़ने लगी है।मुझ मांझी की कस्ती बन कर जा देखो किनारे पे लगी है।
विरह में हँसाने कैसे पल पल जैसे ईश्वर अवतार कर रहा।कम्पित होती धरती ,और प्रेम हमारा हुंकार भर रहा।
मन देखो तुम्हरी सांसों में अटका कैसे अपनी पीर खो रहा।चंचल कितना था देखो अब तुम में कितना बेख़बर सो रहा।सांसें जीवन की तुम्हारी देखो कैसे संग संग चलने लगी हैं।उलझ-उलझ मेरी साँसों में कितना कितना हँसने लगी हैं।
चरम सीमा में आकर देखो ऊंचाई से व्यंग कर रहा।कम्पित होती धरती ,और प्रेम हमारा हुंकार भर रहा
composed by prem
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खूबसूरत……….
sukriya bahut bahut
Very good????……
bahut bahut dhanyabaad
very nice sir…………………
bahut bahut abhaar apka
very nice ………………..
sukriya ji
thanx for appriciation
बहुत सुंदर रचना ……………………….
एक बार “काश ! चाँद छिपता चांदनी के बिन…” और “वक़्त जो थोड़ा ठहरता…” पढ़ें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
bahut sukriya ….ji jarur
बहुत सुंदर रचना …………
sukriya manoj ji