कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय
सरहद, जो खुदा ने बनाई||
मछली की सरहद पानी का किनारा
शेर की सरहद उस जंगल का छोर
पतंग जी सरहद, उसकी डोर ||
हर किसी ने अपनी सरहद जानी
पर इंसान ने किसी की कहाँ मानी||
मछली मर गयी जब उसे पानी से निकाला
शेर का न पूछो, तो पूरा जंगल जला डाला ||
ना जाने कितनी पतंगो की डोर काट दी
ना जाने कितनी सरहदे पार कर दी ||
धीरे-२ खुदा की सारी खुदाई नकार दी
सरहदे बना के बोला दुनिया सवार दी
कुछ सरहदे रंग-रूप की, कुछ जाति-धर्म की
कुछ लिंग-भेद की, कुछ अमीरी ग़रीबी की……
धर्मो के आधार पर, मुल्क बना डाले
अपनो के ही ना जाने कितने घर जला डाले||
भाई ने आगन मे दीवार खीच सरहद बना डाली
चारपाई कैसे बाँटता इसलिए होली मे जला डाली||\
हर तरफ इंसान की बनाई सरहदों का दौर है
ये ग़लती है हमारी, आरोपी नही कोई और है||
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अति सुन्दर ….. !!
Bahut bahut aabhar Nivatiya ji
बहुत सही कहा आपने………बेहद ही खूबसूरत……
sukriya aapka …
thanks a lot ….
bahut sundar…
sukriya vijay ji..
vijay ji aabhar aapka
बहुत सुन्दर सत्यपरक रचना।
aabhar devendra ji…
sukriya Davendra ji aapka…
A lovely write full of sarcasm on current issues.
Thanks a lot Shishir ji for your valuable comments……..