मैं बेज़ुबां हूँ, लेकिन बेजान तो नहीं हूँएहसास हो न जिसमें, वो सामान तो नहीं हूँमाना कि नस्ल से मैं इंसान तो नहीं हूँइंसान की तरह ना-फरमान तो नहीं हूँकुदरत ने मुझ को तेरा, जब दोस्त था बनायाये क्या किया कि तुमने इसको नहीं निभायाक्यों दोस्ती ये तोडी, मुझ को किया परायाक्यों दर्द जाँ-कशी का तुझको न दीख पायामैं बेज़ुबां हूँ, कैसे इसको बयां करूँ मैंतू हो गया है कातिल, कैसे जिया करूँ मैंतुम मेरी खैरियत का फरमान कब बनोगेइंसान की शकल में इंसान कब बनोगेतूने मुझे बुलाया, दौड़ा चला मैं आयातुमसे किया मोहब्बत, मैंने भी प्यार पायामैं मानता हूँ तुमने खिलाया, पिलायानहलाया, धुलाया, फिर पीठ सहलायाये बेशकीमती था जो प्यार मैंने पायामैंने भी अपना सब कुछ तुझ को किया लुटायाऔलाद का चुरा कर के दूध सत्त वालातुझ को पिला पिला कर औलाद जैसे पालाफिर जाने कैसी कैसी इससे बनी मिठाईतुम सबने चाय कॉफी की चुस्कियां भी पाईखाद दिया है, दिया गोबर का गैस हैफिर पंचगव्य दिया जो तरबियत से लैस हैउपले दिए, मरकर के अपना चाम भी दिया हैहल, रहट, गाड़ियों में जुत काम भी किया हैजाड़े से बचने को तुझे ऊन दे दिया हैअंडों में भरकर के अपना खून दे दिया हैतूने जो गन्दगी की, उसे साफ़ किया हैबदले में तूने कैसा इन्साफ किया हैये कुछ न दिखा तुझे, केवल मांस दिखा मेराक्यों नहीं ये घुटता हुआ सांस दिखा मेराजो चीख मेरी सुन ले वो कान कब बनोगेइंसान की शकल में इंसान कब बनोगेकितने ही अनाजों से दुनिया अटी पडी हैफल सब्जियों के जायकों से पटी पडी हैखाना यही माकूल है इंसान के लिएये पेट नहीं बना कब्रिस्तान के लिएदुनिया के साइंस-दां और हकीम बोलते हैंये मांस-मुर्ग तन बदन में ज़हर घोलते हैंबीमार करते हैं ये, होते हजम नहींकुदरत ने बनाया तुझे यूँ बेरहम नहींखुदगर्ज़ हो गया तू , न खुदा से भी डरातेरी जुबां के जायके से बेज़ुबां मराजिस खुदा ने तुझे, उसी ने मुझको बनायामज़हब की मार्फत भी रहमत ही सिखाया ये किस खुदा के वास्ते तू हुआ बे-ईमाँनदियाँ बहा के खून का, हो रहा शादमांये काम है गुनाह का, सबाब का नहींज़न्नत तो क्या दोज़ख भी मिलेगी तुझे नहींदुनिया के मजहबों का ईमान कब बनोगेइंसान की शकल में इंसान कब बनोगे
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बहुत बढ़िया शेखऱ जी
प्रोत्साहन उर्जा प्रदान करने का आभार…शेखर वत्स
डॉ साहब, आभार…..
.अति सुंदर रचना………………..
मेरी दो बहुमूल्य रचनाएँ आपकी अनमोल प्रतिक्रिया हेतु प्रतीक्षारत हैं. कृपया पढ़कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
“काश ! चाँद छिपता चांदनी के बिन…” और “वक़्त जो थोड़ा ठहरता…”
आपकी कवितायेँ पढ़ी……अच्छे प्रयास हैं….आभार…
bahut badiya sir………………….
थैंक्स मनी जी….
बहुत ही सुंदर रचना………………. ।
प्रतिक्रिया के लिए आभार काजल जी….
Good work on vegetarianism.
अत्यंत आभार शिशिर जी…..
बेहद सुन्दर………आपकी फोटो ऊपर है तो एक ज्योतिषाचार्य हैं उनके साथ भी मिलती है…हा हा हा…
क्या आपका इशारा आचार्य अनिल वत्स की तरफ है…….प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद…
जी बिलकुल सही पकडे हैं आप…..
बेजुबानो की जुबान को बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया है आपने ………….बेहतरीन सर्जनात्मकता !!
प्रतिक्रिया की उर्जा प्रदान करने के लिए आभार….
अद्वितिय लेखन….भाव से परिपुर्ण………हैं कलम हस्त।
बेजुबां की जुबां कागज पर उतर आया है “शेखर वत्स॥
(रंजीत कुमार झा)
प्रतिक्रिया में छंद…..है आया पसंद…