न जाने कितनी चोटें खायी मैंनेन जाने कितने स्वांग रचवाए मैंने…… कभि ठेकेदारों के गुट ने मेरा बलात्कार कियाकभि नेताओं ने मेरा रूह तार-तार किया…. कभि जाहिलों ने मुझपे वार कियाकभि पढ़े-लिखों ने मुझे शर्मशार किया …. कभि टेबल के निचे मेरी धज्जियां उडाई गयीतो कहीं मुझे बेच कर रंगरलियाँ मनाई गयीं …. कहीं बाप-बेटे ने ही मिलकर मुझे बेच खाया…तो कहीं शिक्षक-विद्यार्थी ने मेरा मजाक बनाया … कहीं लोगों का मुझपर से विश्वाश उठ गया…कहीं गरीबों का मेरी वजह से दिल टूट गया …. रह गयी हूँ आज मै इंसानियत बस लफ़्ज़ों में…लिखा जाता है मुझे बस अब कोरे पन्नों में….. पर रख लो मेरी बात गाँठ बाँध केआउंगी फिर से मै बहुत शान से…. अस्तित्व की लडाई फिर मै नहीं वो लोग लड़ेंगे….जो और आगे लालच की सीढियां चढ़ेंगे… भविष्य में इतिहास खुद को फिर से दोहराएगाफिर मदद को एक नहीं सौ हाथ आगे आएगा…..
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बेहतरीन……….???
Thanks sir…..
निराशा के बादल के बीच आशा की नव किरणों का संचार करती खूबसूरत कविता।
धन्यवाद विवेक जी……
बहुत ही सूंदर है तुम्हारी कविता श्रीजा। आज के जमाने मे जब लोग अपनी इंसानियत भूल चुके हैं ,तुमने उसी इंसानियत को ले कर इतनी सुन्दर कविता लिख दी। बहुत खूब।
मेरी रचना की सराहना के लिए बहुत बहुत आभार आपका…..
Bahut hi umda……..
Thanks mani ji….
लोगों के मरे हुए इंसानियत को जगाने की बहुत ही अच्छी
कोशिश……… बहुत सुंदर ….. ।
आपकी प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद काजल जी…..
Beautiful optimistic write……….
Thanks for your comment sir…. it means a lot
बेहद खुबसूरत ………।।
Thank you so much sir…