इंसानियतहर तरफ़ क्यों छल है भराक्यों फरेब है बिखरा हुआकैसी चॉही थी हमने ये दुनियॉजाने ये कैसा बन गयापहले जहॉ बिस्वास थाआज विष का वास हैपहले जो थी मर्यादाआज वो शब्द परीहास हैकरें कैसे किन पर यक़ीन चेहरे पे छिपे चेहरे कईकहने के लिए कुछ और हैकरने के लिए बातें जुदाबस्ता नहीं अब प्यार दिलों मेहर यार यहॉ है मतलब काये कैसी बाजार सजीहो रहें रिश्तों के व्यापार जहॉकहने के लिए इंसान है हमपर पता नहीं इंसानियत का
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You have composed the reality of the life. nice poem.
very nice ……………….!
बहुत खूब…………
Lovely expression of frustration from the hypocrisy.