चमन मे चॉदनी फैलीलहर भी दौड़ के आईहजारो ने उसे देखाकली भी मंद मुस्काईकौन थी वो परी थी क्याया कोई अप्सरा थी वो !यही मैं सोचने बैठाक्या मेरी कल्पना थी वोजब मैं सोचने बैठावहॉ पर रोशनी छाईपलट कर मैने जो देखावो परी फिर से थी आईमै उसके सामने पहुँचाशर्म से वो यूँ मुस्काईलगा मुझको तब ऐसेलबों से फूल झड आईमैं कुछ पूछता उस्सेतभी मै जाग कर बैठासबेरा हो चुका था अबवो मेरी कल्पना थी बस ।
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सुनीलजी….बहुत सुन्दर कल्पना है….पर अंतिम पंक्ति जुड़ती नहीं लगती….
धन्यवाद आपके सुझाव के लिए पर मै यहॉ जो अपना
अनुभव जीवन के बारे में बतना चाह रहा हूँ उसकी
पंक्तियॉ कुछ यूँ ही खत्म हो जातीं हैं । आगे मै आपकी
सुझाव को धयान मे रखुंगा ।
आपका
सुनील कुमार जायशवाल