“अरुणोदय”
मुँह अँधेरे पौ फटी है,
जो थी निशा वो कटी है
जो था अँधेरा दूर हुआ,
वो रैना सर पर से हटी है
घँसलों के भीतर सोये,
अम्बर प्रेमी पंछी जागे
नील गगन को देख करके,
चहक करके नभ को भागे
चुगने को दान ये पंछी,
घोंसले को छोड़ रहे है
मोड़ रहे है अपनी राहें,
अपने बन्धन तोड़ रहे है
निशदिन जब भी भोर होता,
तब द्रश्य यह हर ओर होता
सारा जग जब शांत रहता,
तब पृकृति का शोर होता
शीत वात की शीत लहर,
जो शीतल करती है पहर
मन को मधु कर देता है,
मधुर वात का मधुर असर
एक ओर तो बहती है,
रोग निवारक यह समीर
एक ओर कल-कल है करता,
जलाशयों का निर्मल नीर
समस्त भुवन स्वर्ग हो जाता,
जब अरुणोदय ले दिनकर आता
अपनी कोमल किरण से उस क्षण,
घृणा द्वेष से मुक्त करता
सरिता में जब नीरज खिलता,
देख उसे ज्यो धीरज मिलता
मिलता है आनंन्द मन को,
ज्यो धीरे धीरे तरु है हिलता
स्वर्ण दैहिक वसुधंरा होती,
रवि की कनक किरणों में
समस्त जीव आजाते है,
पृकृति की इन शरणों में
पर रज को ठण्डा जो किया था,
रजनी के रजनीश ने
रश्मि उसको तप्त करेगी,
रविकर की तपिश से
अब दिन गर्म बीतेगा,
और सूरज दल जाएगा
पर नई पौ फिर फटेगी,
और अरुणोदय आएगा
Author तुषार गौतम
cont. +918827795526email: [email protected]poetry : [email protected]
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Behtarian sir………..
dhnyawaad mani ji
बहुत सुन्दर………
dhnyawaad shreeman ji