नही सुने थे वो हमारी उसने भी अनसुनी की वो लौटे ने मौसम लौटा सपनों ने अनसुनी कीहम भी थे खामोश मगर वो चेहरे से ही समझ गयी भीग गयी सब पलकें मेरी यादों ने जब बारिश की ऐसी अजब कयामत ढाई जमीं पैर से निकल गयी नही हुई इनायत उनकी अपनों ने मनमर्जी कीऔर भला क्या हम समझाते समझाने से रूठ गयी शरमा के वो मुकर गयी जब आइने के सम्मुख की प्यार का जैसे नगमा हो वो इतनी प्यारी लग रही मुझसे पहले कितने आये सबकी ही अनसुनी कीहो जैसे कोई किस्सा वो किस्सा जैसे बन गयी सुबह शाम हम जिसको सोचें उसने ही अनसुनी कीबेदर्द जमाना है ये तो उसका भी इसमें मोल नहीजीवन है जीवन जीने को समय ने अनसुनी की “मनोज कुमार”
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Very nice sir……………
thanks sir ji…………………….
लाजवाब……..मनोज जी क्या शब्दों का भाव से मेल किया है…….
सराहना के लिए हार्दिक आभार बाबू जी