“रिश्ते ही रिश्ते ” यह विज्ञापन रेल से आते जाते ,पुरेपुरे भारतवर्ष में दीवाल पर छपा हमेशा ही दिख जाता है ,ऐसा लगता है कि जैसे कि किसी दुकान का विज्ञापन हो ,जहाँ तरह तरह के आकार और जाति के रिश्ते मिलते हैं।क्या सचमुच ही ऐसे हालात हो गये हैं,कि रिश्तों और संस्कार की दुहाई देने वाले भारतवर्ष में ,आज रिश्ते दुकानों पर भी बिकने लगें हैं,क्या हुआ उन मामी चाची और बुआंओं का ,जिनका काम ही रिश्ते जोड़ने का ही हुआ करता था ,और कभी कभी रिश्ते तोड़ने का भी।क्या मैँ कुछ गलत बोल रही हूँ या अपनी उपर्लिखित ,टिपण्णी में ज्यादा ही कटु कह रही हूँ ,तो कृपया ,मुझे माफ़ कीजियेगा ,मगर आप ही बताईये कि मै, इस “रिश्ते ही रिश्ते ” विज्ञापन का का क्या अर्थ निकालूँ ?
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Deep thoughts are there in this work. Today sweetness of relations has completely vanished.
Many Many Thanks Shishir ji.Yes this is the price we are paying for the mechanical life we are living and thereby cutting ties with our extended family.As there is Demand there is supply of such paid services.
बहुत सही कहा आपने बहुत गहरा….पर आने वाले टाइम में यही होने वाला और….कारण रिश्ते भुआ…चाचा…तायू…मामा सब कम होने वाले हैं…एक ही बच्चा है या दो….तो रिश्ते कहाँ रहेंगे बाकी के… जब तक हमारी पीढ़ी है यह रिश्ते हैं….
चलिए हम बड़े ही इस दिशा में कुछ कर सकते हैं जैसे कि समय समयपर छोटे छोटे गेट टूगेदर का आयोजन कर के अपने रिश्तों को आने वाले
पीढ़ी के लिए जिन्दा रख सकतें हैं। वैसे तो लोगों के साथ की तो सभी को जरुरत होती है चाहे वह दोस्त हो या रिश्तेदार। आखिर इंसान को यू
ही तो नहीं सामजिक प्राणी कहा जाता है।
Aaj ke insaan Ki soch par ktakash karti bahut hi umda Rachna………..bahut badiya…..
बहुत बहुत धन्यवाद मनी जी आपकी सूंदर प्रक्रिया के लिए।