अहसान ज़माने का है यार मुझ परकिस ज़माने की बात करते होरिश्तें निभाने की बात करते होअहसान ज़माने का है यार मुझ परक्यों राय भुलाने की बात करते होजिसे देखे हुए हो गया अर्सा मुझेदिल में समाने की बात करते होतन्हा गुजरी है उम्र क्या कहियेजज़्बात दबाने की बात करते होगर तेरा संग हो गया होता “मदन “जिंदगानी लुटाने की बात करते होमदन मोहन सक्सेना
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Beautiful ……………………!!
बेहतरीन………………बधाई…………………
एक रचना “शराब (गजल)” आपकी नजरों की प्रतीक्षा में है पढ़कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
saxena jee bahut badiya likh rahen hain, kuch dusaron ki rachna bhi padhiye.
bahut badiya sir………………….
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल……मतला गर से शुरू किया जैसे आपने उस हिसाब से अंतिम पंक्ति मिलती नहीं लगती भाव में मुझे…..
बेहतरीन रचना पर मदन जी यह गजल नहीं बन पाई
किस ज़माने की बात करते हो
रिश्तें निभाने की बात करते हो
यह आपका मतला है, इसके हिसाब से “की बात करते हो”
दोनों ऊला और सानी में सामान है अतः यह रदीफ़ हुआ।
अब “आने” जैसे जमाने निभाने गाने बताने जैसे शब्द ही काफिया हुआ। पर आपने “आत” से मिलते शब्द काफिया ले लिया जो पूर्णतया गलत है।
आप “किनारे रक्स करते है” या एक प्यारी शरारत और हो जाती” या ” खड़ा गुम्बद नहीं होता” आदि रचना पढ़े, आप को थोडा गजल स्पष्ठ हो जायेगा
माफ़ी चाहूँगा मदन मोहन सक्सेना जी, आपकी रचना पूर्णरूप से गजल है, वाकई में एक ऐसी ही गजल किसी ने whatsapp पर भेजी थी और वही पढ़ा और उसी को ख्याल से लिख डाला, मै खुद में शर्मिंदा हूँ। आप की रचना में शिल्पगत त्रुटी नहीं। पुनश्च माफ़ी।।