माँ!एक दिवस मैं रूठा थाबडा ही स्वाभिमानी बन , उऋण हो जाने कोतुमसे भी विरक्त हो जाने को,त्यागी बन जाने को !घर त्याग चला कहीं दूर वन कोध्यानिष्ठ हुआ पर ध्यान नहीं, न शांति होती मन कोयह चक्र सतत् चलता रहापर जननी! तेरी याद कहाँ भूलता रहा !!पर नहीं , तप तो करना हैत्याग धर्म में मरना हैयह सोच अनवरत् उर्ध्व ध्यान मेंहो समाधिस्थ तपः क्षेत्र में,मन, तन से दृढ हो तप पूर्ण कियापर नहीं शांति थी ना सुस्थिरता, क्या एेसा अपूर्ण हुआ !!!बुझा हुआ अब अटूट उत्साह थानहीं कहीं पूर्ण प्रवाह थाअचानक क्षुधा की प्यास लगतीमाँ !!!तेरी कृपा की आस लगतीममतामय छाया ना भूलती दोपहरी तपी और पाँव जले पर कहाँ सघन छाया?माँ !!!तेरी आँचल ना भूला पाया हर ओर तुम्हारी थी छाया ! — आलोक पान्डेय ————–_–_——_=
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बहुत खूबसूरत भावों से पिरोया है……माँ का रूप उसी समय सबसे ज्यादा याद आता जब मुश्किल पड़ती….सबसे पहले माँ ही जुबां पे आता………कौई भी तपस्या माँ की सेवा से माँ से ऊपर नहीं……..बहुत सुंदर……..
अवश्य …………
अति भावनाओं का सबसे ज्यादा पुण्य स्मरण. !
Nice and warm feeling better now and I’m so excited about this one
वाह वाह !कितना पावन!
अद्भुत अकल्पनीय
भारत की विडम्बनाओं को लेकर चिंतित एक पुण्य स्मरण माँ के लिए।
Good and better than that wrong view
Good and better than that wrong view
जय मांँ तुम तो प्रेम की सागर हो
जीवन की तूही नागर हो।
अति सुंदर………………….