ये ही तेरे मैकदे का राज खोलते हैंतेरे हाथ कँपते हैं जब जहर घोलते हैं।जहराबे-गम को अमृतकणों से जोड़ते हैंये सोचनेवाले भी क्या खूब सोचते हैं।तन्हा रहूँ या भीड़ में खामोश रहता हूँइधर सब चुप रहते हैं उधर सब बोलते हैं।ये कैसी अजब गली में तुम जाके बसे होमैं एक खटखटाता हूँ सब दर खोलते हैं।मैं तो शाखे-जर्द का एक बर्गे-खुश्क हूँये तो फूल हैं जो दिल की तरह काँपते हैं।हमने दुआ का असर देखा भी तो इस तरहअश्क मुस्कराते हुए अब जख्म खोलते हैं।ये वोह फूल नहीं जो हवा में सूखते हैंजरूर कुछ दिलजले भ्रमर हैं जो कोसते हैं।ये जहर की तासीर है झाक-सी उठा देनाछलकते जाम को देखो वे भी खौलते हैं।हम बैठकर खुदा से एक खुदा माँगते हैंवो हमसे हमीं को खुद आ के माँगते हैं।हम किसी को भी परवरदिगार मारते नहींये दुष्कर्म हैं हमारे जो हमें मारते हैं।—– भूपेन्द्र कुमार दवे00000
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