जगति है आशा कि किरण
और मिट जाती है
मौजों से लड़ती कश्ती
लहरों से कियूँ टकराती है
जब मिलती नहीं मंज़िल
सोच सोच घबराती है
है खेल आशा निराशा का
भँवर में फँसी कश्ती
कहाँ किनारों को ढूँढ पाती है
जाना है उस पार
साथ देता नहीं पतवार
करते हैं हम पुकार
रुक सकोगे क्या भरतार
तुम्हें आना पड़ेगा
भरोसे को हमारे
निभाना पड़ेगा
जगाया है जो विश्वास
तो पार लगाना पड़ेगा
कान्हा तुम्हें आना पड़ेगा
है इक समंदर यह ज़िंदगी
उछालों के संग उछलना पड़ेगा
धर धीरज लय पे उनकी
मचलना पड़ेगा
ऊँचाइयों और गहरायीयों में
उभरना और डूबना पड़ेगा
बन आशा की किरण
कान्हा तुम्हें आना पड़ेगा
आना पड़ेगा
आद0 किरण जीबहुत उम्दा भाव लिए खुबसूरत रचना……………..
सुरेंद्र जी बहुत २ धन्यवाद
बहुत खुबसुरत पंक्तियां
Naval ji Bahut 2 dhanyawad
बहुत उम्दा भावों से रचित पुकार है आपकी…..आना ही पड़ेगा……
बहुत बहुत धन्यवाद बब्बू जी
आदरणीय किरन जी काफी खूबसूरत रचना की है आपने।
शीतलेश जी सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
खूबसूरत भावों से सजी रचना………..
आपकी नज़रों की प्रतीक्षा में “शराब (गजल)” है. अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
विजय जी कविता की सराहना के लिए बहुत २ धन्यवाद
Nice description of adhikaar through devotion.
शिशिर जी बहुत २ धन्यवाद , जहाँ प्रेम होता है वहाँ ही अधिकार से बात रख सकते हैं
ईश प्रेम में डूबे जज्जबात के माध्यम से साकारत्मक रूप में उसकी अधीनता को निश्चित करती भावनात्मक रूप से शशक्त विचारो का सम्प्रेषण बहुत ही प्रभावशाली रूप में प्रश्तुत किया है आपने ………….अति सुन्दर किरण जी !!
निवातीयाँ जी बहुत २ धन्यवाद , ज़िंदगी ने शायद यह ही समझाया की प्रभु प्रेम से बड़ कर कुछ भी नहीं ,सांसारिक बातों का अपना महत्व है पर पार लगानेवाला तो वह ही है ,उस असीम ताक़त के सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं
खुबसूरत रचना किरन जी ।
काजल जी सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत खुबसूरत रचना मैम…………..
अलका जी सराहना के लिए बहुत २ धन्यवाद